बाबूजी के शिक्षक होने से बेहतर पारिवारिक पृष्ठभूमि और पढ़ाई में मेरी ठीक-ठाक छवि के कारण अपनी मार्केट वैल्यू अच्छी थी। नतीजतन इंटरमीडियट की परीक्षा पास भी नही की थी कि शादी के लिए लड़की वालों का आना शुरू हो गया था। शादी-ब्याह के मौसम में कॉलेज में छुट्टी होने पर जब भी घर आता, दो-चार लड़की वालों का सामना करना ही पड़ता।
तब न तो आज की तरह फोटो खिंचाना इतना आसान हुआ करता था, न ही शादी वाले लड़कों के बायोडाटा बनवाने की सुविधा थी। शादी डॉट कॉम जैसी वेबसाइटों की तो बात ही नहीं सोची जा सकती थी। ऐसे में फोटो और बायोडाटा के आदान-प्रदान का चलन काम ही था।
सो, आम तौर पर नाते-रिश्तेदारों और पड़ोसियों के बताने पर ही लोग अपनी शादी योग्य बिटिया के लिए लड़का देखने के लिए निकलते थे। अमूमन ऐसे शुभ कार्यों के लिए लड़की वाले अकेले नहीं निकलते, सो अपने साथ तथाकथित होशियार स्वजनों को भी ले लेते थे, जिनका दायित्व लड़के का साक्षात्कार लेना होता था। मुझे भी ऐसे दर्जनों साक्षात्कार का सामना करना पड़ा। बाद दीगर है कि शादी की तय उम्र पूरी करने के सात साल बाद ही मुझे सात फेरे लेने का अवसर मिल पाया।
एक बार लड़की वाले मुझे देखने आए थे। घर में बड़ा होने के कारण उनकी खातिर-तवज्जो भी मुझे करनी थी। इन औपचारिकताओं के बाद मुझसे सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ। बाबूजी भी वहीं बैठे थे। नाम, पढ़ाई की स्ट्रीम, कॉलेज आदि के बारे में पूछने के बाद सवाल आया-आपका मूल क्या है? सवाल मेरे सिर के ऊपर से निकल गया। बाबूजी आश्चर्यचकित थे कि मैं (उनके हिसाब से) इतने आसान सवाल का जवाब क्यों नहीं दे पाया। उन्होंने मेरी ओर देखा, लेकिन मेरे चेहरे पर उस सवाल का उत्तर न जानने का भाव साफ दिख रहा था। उन्होंने पूछा, क्या तुम अपना गोत्र नहीं जानते हो? मैंने तपाक से कहा, गोत्र तो जानता ही हूं। उन्होंने मेरी शंका दूर की कि हर व्यक्ति किसी ऋषि की संतान है और उसी ऋषि के नाम पर उसके गोत्र का निर्धारण हुआ है। इसे ही ‘मूल’ भी कहते हैं। इस तरह मुझे गोत्र और मूल के समानार्थी होने का पता चला।
बाबूजी के देवलोकगमन के बाद पिछले छह साल से आश्विन महीने में पितृपक्ष में तर्पण करता हूं तो पिता और माता दोनों पक्ष की तीन पीढ़ियों को जलांजलि देने के साथ ही पिंडदान करना होता है। हर आदमी तो इतने महान कर्म नहीं कर पाता कि आने वाली पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसे याद रख सकें, लेकिन पूर्वजों केप्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह कर्तव्य हमें आश्वस्त करता है कि जब हम भी नहीं रहेंगे, तो आने वाली तीन पीढ़ियों तक हमारा भी नामलेवा रहेगा।
फेसबुक पर एक वरिष्ठ मित्र के गोत्र को लेकर गए पोस्ट को पढ़ने के बाद सहज ही दिमाग में ये विचार उत्पन्न हुए तो इसी मंच पर उन्हें रखने से खुद को नहीं रोक सका।
01 November 2018
No comments:
Post a Comment