मेरे लिखने की मेज
5 weeks ago
सोमवार सुबह नींद खुलने के बाद से ही मां से बात करने के लिए कई बार गॉंव फोन किया, लेकिन नेटवर्क डिस्टर्ब होने के कारण कॉल जा ही नहीं रही थी। करीब 10 बजे फोन लगा तो बहूने बताया कि मां घर पर नहीं हैं। सोनेलाल चाचा के अंतिम दर्शन के लिए गई हैं। यह सुनते ही सन्न रह गया। हाई स्कूल के जमाने से लेकर पिछली फरवरी में उनसे हुई मुलाकात तक का हरेक पल दिमाग में धमाचौकड़ी करने लगा।
गांव के मिडिल स्कूल से छठी पास करने के बाद ब्लॉक मुख्यालय पातेपुर स्थित श्री रामचंद्र उच्च विद्यालय में एडमिशन लिया था, जहां सोनेलाल बाबू अंग्रेजी पढ़ाते थे। अंग्रेजी के विद्वान होने के बावजूद वे धोती-कुर्ता ही पहनते थे। उनके अनुशासन का ऐसा असर था कि स्कूल टाइम में कोई भी विद्यार्थी धोखे से भी बरामदे में घूमता या गप्पें लड़ाता नहीं दिखता था।
उस जमाने में अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई छठी कक्षा से ही शुरू होती थी। इक्के-दुक्के छात्र ही व्यक्तिगत रूप से अपने घर पर अंग्रेजी की अनौपचारिक शिक्षा ले पाते थे। ऐसी पृष्ठभूमि वाले बच्चों को वे ऐसी घुट्टी पिलाते कि साल-दो साल में ही उसके मन से अंग्रेजी का डर पूरी तरह से गायब हो जाता था। आठवीं के बाद तो उन्होंने अंग्रेजी की क्लास में कभी हिंदी शब्दों का प्रयोग नहीं किया। पाठ को पढ़ाने के बाद अंग्रेजी में ही उसे एक्सप्लेन करते, लेकिन लहजा इतना सहज होता कि विद्यार्थियों को कतई परेशानी नहीं होती। बच्चों में अंग्रेजी ग्रामर के ज्ञान का बीजारोपण करने वाले सोनेलाल बाबू नाउन, प्रोनाउन, वर्ब, एडवर्ब आदि इस तरह आत्मसात करा देते कि सोते से भी जगाकर कोई पूछ ले तो बच्चा नहीं अटके। आज भी जब कभी अंग्रेजी में कुछ लिखते हुए वर्ब के तीनों रूप प्रजेंट, पास्ट और पास्ट पार्टिसिपल में किसी का इस्तेमाल करना होता है तो बरबस ही वो दिन स्मृति पटल पर घूमने लगते हैं जब उन्हें ये तीनों रूप सुनाया करता था।
हमारे गांव में ही नहीं, बल्कि पूरे ब्लॉक के दर्जनों गांवों में हमारी, हमसे पहले वाली और हमारे बाद वाली पीढ़ी के लोग जितनी भी अंग्रेजी जानते हैं, वह उन्हीं की देन है। इनमें सैकड़ों लोग ऐसे भी रहे, जिन्हें सोनेलाल बाबू ने अंग्रेजी पढ़ाई और बाद में उनके बच्चे भी उनके शिष्य रहे। उनके शिष्यों में कई प्रशासनिक अधिकारी, डॉक्टर, प्रोफेसर हुए। विभिन्न नौकरियों में छोटे से लेकर शीर्ष पदों तक पर कार्यरत लोगों की तो गिनती ही नहीं है ।
पातेपुर से प्रेम
उनकी नौकरी का अधिकांश समय पातेपुर हाई स्कूल में ही बीता। इस दौरान पातेपुर उनके दिल के इतने करीब आ गया था कि वे छुट्टी के दिन भी एक बार पातेपुर जरूर जाते। यह लगाव ऐसा लगा रहा कि रिटायरमेंट के बाद भी शरीर जब तक साथ देता रहा, वे रोज पातेपुर जाते रहे।
सत्य नाम करु हरु मम सोका
सोनेलाल बाबू बतौर शिक्षक जितने कड़क थे, सामाजिक जीवन में उतने ही सरल-सहज, कोमल और मिलनसार। हमारे गांव में पहले होलिका दहन के बाद हर साल लोग टोली में निकलते और एक-दूसरे के दरवाजे के साथ ही दुर्गा स्थान, ब्रह्म स्थान और शिव मंदिर पर भी होरी गाई जाती। गवैयों की टोली जब ब्रह्म स्थान पर पहुंचती तो सोनेलाल बाबू ही होरी उठाते-सुनहु बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका। उनके पुण्य का प्रताप ही कहेंगे कि परमपिता ने उन्हें अपने परमधाम में बुलाने के लिए जो दिन चुना, वह थी ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी।
सोना नहीं, पारस
उनका नाम भले ही सोनेलाल था, लेकिन वे सोना नहीं, पारस थे। जिसके सिर पर उन्होंने हाथ रख दिया, वही स्वर्ण सा निखर गया। उनके स्वर्गारोहण के साथ ही एक युग का अवसान हो गया है ।
06 June 2016
मातृभाषा हिंदी के शब्दों को भी अच्छी तरह बोलना सीखने से कहीं पहले देववाणी संस्कृत के कई शब्द हमारे बाल मनो-मस्तिष्क पर अंकित हो गए थे। इनमें पहला था-तृप्यन्ताम्, तृप्यन्ताम्...दरअसल पितृपक्ष के दौरान बड़का बाबू जब कई दिनों तक लगातार पूर्वजों का पिंडदान-तर्पण करते तो पुरोहित के साथ-साथ उनके द्वारा बार-बार दुहराया जाने वाला
‘तृप्यन्ताम्.तृप्यन्ताम्...’ बरबस ही हम बच्चों की जुबान पर चढ़ जाता।
कुछ बड़े होने पर शारदीय नवरात्र में घर के पास होने वाली सामाूहिक दुर्गा पूजा हम बच्चों को लुभाने लगी। पूजा में रोजाना मिलने वाला प्रसाद खास आकर्षण होता हमारे लिए। वहां नौ दिन तक लगातार सप्तशती का पाठ होता। सप्तशती के सात सौ श्लोक के विषय में तो हम क्या जान-समझ पाते, पर
‘नमस्तस्यै। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै नमो नम:’ बिना किसी विशेष प्रयास के हमें कंठस्थ हो गया था।
समय बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया। वर्ष 2012 में बाबूजी के परम सत्ता में विलीन हो होने के बाद से परंपरा का निर्वाह करते हुए पूर्वजों की आत्मोन्नति के लिए पिंडदान-तर्पण मैं भी करता हूं। इस दौरान देवताओं, ऋषियों के साथ ही वनस्पति, पर्वत, जीव-जंतुओं तक के लिए तर्पण का विधान है। कई लोग इस पूरी प्रक्रिया को ढकोसला बताने में संकोच नहीं करते। उनके अनुसार पूर्वजों को तृप्त करने का यह अनुष्ठान कदापि तर्कसम्मत नहीं है।
हमारे द्वारा किया गया पिंडदान-तर्पण पितरों तक पहुंचता है या नहीं, इससे उन्हें तृप्ति मिलती है या नहीं, इसका प्रमाण तो मैं नहीं दे सकता, लेकिन जिन्होंने अपने जीवन का हरेक पल हमारी उन्नति के लिए समर्पित कर दिया, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का यह प्रयास हमें अवश्य तृप्त कर जाता है। ...और तृप्ति का यह भाव जीवन के सभी भावों से बढ़कर है।
08 September 2017