Sunday, December 24, 2017

बस से बंगलोर-5


आसमां से धरती के नजारे रात दो बजे तक काम करने के बाद दफ्तर से सीधे एयरपोर्ट के लिए निकल गया था। वहां भी करीब साढ़े तीन घंटे आंखों ही आंखों में कटे। ऐसे में बंगलोर के लिए एयरबस में सवार होने के साथ ही नींद के झोंके आने लगे थे। वहीं दिमाग इस पहले हवाई सफर के हर अनुभव को संजो लेने को सन्नद्ध था, ताकि इसे अपने उन प्रियजनों से बांट सकूं, जो अब तक इससे वंचित हैं। इसलिए नींद से बोझिल होने के बावजूद आंखें खिड़की के बाहर आसमान में निहार रही थीं। रन वे से उड़ान भरने के बाद एयरबस की रफ्तार का अहसास केवल उसकी तेज आवाज से ही हो रहा था। इससे अधिक रोमांच का अनुभव तो बचपन में सोनपुर मेले में हवाई झूले पर होता था। सोचता हूं, जैसे शारीरिक पीड़ा हद से बढ़ जाने पर दिमाग को उस अनुपात में अहसास नहीं होता, शायद वैसे ही हवा में बात करते विमान की रफ्तार का अहसास भी उसमें बैठे यात्री को नहीं हो पाता है। विज्ञान और दर्शन की इन गुत्थियों में खुद को क्यों खपाया जाए, कम समय में मंजिल तक पहुंचने का मकसद पूरा हो जाए, यही काफी है। बंगलोर से वापसी में फ्लाइट सुबह 11 बजे थी। स्नान-ध्यान के साथ भरपूर नाश्ता, प्रिय मित्र, आदरणीया भाभीजी, प्यारी बिटिया की शुभकामनाएं और मित्र के पूजनीय सासूजी और श्वसुरजी का आशीर्वाद लेकर निकला था, सो तन-मन में भरपूर ताजगी थी। खिड़की के किनारे वाली सीट सोने पर सुहागा का अहसास करा रही थी। अच्छी-खासी धूप खिली थी, सो बाहर सब कुछ बिल्कुल साफ था। गतिमान बादलों के रंग-रूप और हरियाली को छोड़ दें तो विमान के गतिमान होने के बावजूद नीचे का नजारा लगभग एक जैसा ही था। कुछ कुछ वैसा ही जैसा गूगल मैप को जूम करने पर दिखाई देता है। लैंड करने का समय नजदीक आने के साथ ही ऊंचाई कम होने पर विमान से धरती के नजारे साफ नजर आने लगे। इसकी अनुभूति भी काफी आकर्षक रही। इति

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