बस से बस तक
सबकी निगाहें गेट नंबर तीन के बंद दरवाजे और कान उसे खुलने को लेकर होने वाली उद्घोषणा पर लगे थे। थोड़ी ही देर में शीशे के उस पार खर्रामा-खर्रामा आती दो नीली बसें दिखीं। इसी बीच गेट खुलने के साथ उद्घोषणा हुई कि बंगलोर की फ्लाइट के सभी यात्री बस में सवार हो जाएं। यह क्या...महज कुछ ही कदम चलकर बस रुक गई। इससे अधिक दूरी तो ट्रेन का अंतहीन इंतजार करते हुए हम प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी करते हुए तय कर लेते हैं।
खैर, बस से उतरते ही सामने इंडिगो का विमान उड़ान भरने के लिए खड़ा था। हालांकि इस पर कहीं भी एयरोप्लेन या विमान शब्द नहीं दिखा। हां, एयरबस 320 जरूर लिखा था। चोंच, पूंछ और डैनों को छोड़ दिया जाए, तो यह अपेक्षाकृत लंबी बस से अधिक कुछ नहीं लग रही थी। इसमें सवार होने के लिए ऊंची और घुमावदार सीढ़ी लगी हुई थी। दरवाजे खुलने के साथ ही यात्री इसमें दाखिल होने लगे। अंदर से भी यह मुझे बस जैसी ही लगी।
बसों में जहां 34 से लेकर 72 तक सवारियों के बैठने की जगह होती है, वहीं इसमें 180 सीटें थीं। इससे कहीं आरामदेह सीटें तो आजकल वॉल्वो और स्कैनिया बसों में होती हैं। दरअसल बोर्डिंग पास पर लिखा ‘इकोनोमी’ क्लास इस अहसास-ए-कमतरी की गवाही दे रहा था। संतेष इस बात का था कि तथाकथित ‘बिजनेस’ क्लास का कोई नामो निशान नहीं था।
जरूरी एहतियात की उद्घोषणा के बाद एयरबस सरकने लगी। डैने थोड़े और खुले और रन-वे पर धीरे-धीरे फर्राटे भरने के साथ ही एयरबस आकाश में पहुंचने लगी। ...लेकिन यह क्या, अब हमें उस हवाई रफ्तार का कोई अहसास नहीं हो रहा था जो सैकड़ों किलोमीटर की दूरी को महज कुछ ही मिनट में तय कर लेती है।
(क्रमश:)
18 दिसंबर 2017
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