Thursday, October 19, 2017

रामलला की जय हो जय हो


आस्था को कोई आकार नहीं दिया जा सकता । भक्ति किसी निश्चित सांचे में फिट नहीं की जा सकती । भक्त जिस रूप में चाहे, अपने इष्ट की आराधना कर सकता है । पौराणिक आख्यानों में ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं। उन्हें दुहरा कर इपने अल्पज्ञान के प्रदर्शन और आपका बहुमूल्य समय नष्ट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है । शारदीय नवरात्र अभी खत्म हुआ है, लेकिन उसका असर हमारे मन-मस्तिष्क से लेकर वातावरण तक में अब भी बरकरार है। मां का आवाहन, बेटी की विदाई इसे आस्था की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि हमारे यहां शक्ति की अधिष्ठात्री भगवती दुर्गा का आवाहन तो मां (जगज्जननी) के रूप में किया जाता है, लेकिन नौ दिनों तक भक्ति भाव से अनवरत पूजा-अर्चना के बाद उनकी विदाई पुत्री के रूप में की जाती है। जिस तरह शुभ लग्न- मुहूर्त देखकर बेटी की विदाई का समय तय किया जाता है, उसी तरह देवी प्रतिमाओं का विसर्जन मंगल वेला देखकर किया जाता है। गजब का उत्साह प्रतिमा विसर्जन की शोभायात्रा में शामिल होने के प्रति हम बच्चों में गजब का उत्साह रहता। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि प्रतिमा विसर्जन शुभ मुहूर्त देखकर किया जाता है, सो यह शुभ मुहूर्त किसी साल शाम को, तो किसी साल सूर्योदय के समय होता। कई बार तडके तीन बजे विसर्जन होता, तो अव्वल तो हम सोते ही नहीं, कि कहीं हम सोते ही रह जाएं और इधर प्रतिमा विसर्जन की शोभायात्रा रवाना हो जाए। रोम-रोम में राम नवरात्र पूरी तरह मां भगवती को ही समर्पित होता। सुबह-शाम दुर्गा सप्तशती के श्लोक गूंजते। कीर्तन मंडलियां भी मां दुर्गा की महिमा के भजन ही गातीं। जहां तक प्रभु श्रीराम की बात है, तो वे श्री रामचरितमानस के नवाह्न पारायण तक ही सीमित रहते, लेकिन प्रतिमा विसर्जन में मां दुर्गा के जयकारों से अधिक " रामलला की जय हो जय हो " का उद्घोष ही अधिक गूंजता। जैसा मैं समझ पाता हूं, भगवान राम हम भारत वासियों के मन-प्राण, रोम- रोम में बसे हुए हैं। यही कारण है कि धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्णाहुति पर निकलने वाली हर शोभायात्रा में " रामलला की जय हो जय हो " का उद्घोष बरबस ही गूंज उठता है। 01 October 2017

No comments: