Thursday, October 19, 2017

नीलकंठ को नमन


बचपन के दिनों में शारदीय नवरात्र के दौरान बुरी नजरों का एक अघोषित खौफ सा छाया रहता था। नतीजतन घर से बाहर जाने पर रोक लग जाती थी। प्रतिपदा को कलशस्थापन के दिन से ही रोज सुबह उठते ही मां सभी भाई-बहनों को काजल लगा देती। दुर्गा पूजा का मेला देखने की ललक जोर मारने लगती तो साथ चलने के लिए दादीजी या बड़की चाची की खुशामद करते। घर से बाहर निकलने पर लगी अघोषित रोक विजयादशमी पर खत्म होती। हमारे यहां विजयादशमी पर नीलकंठ का दर्शन मंगलकारी माना जाता है। ऐसे में सुबह स्नान-पूजा के बाद हमारी आंखें नीलकंठ पक्षी को तलाशने में जुट जातीं और थोड़ी ही देर में इसके दर्शन हो भी जाते। समुद्र मंथन के बाद निकले हलाहल को भगवान शिव ने पी लिया था ताकि इससे संसार के किसी प्राणी को कोई नुकसान नहीं हो। उन्होंने अपनी अलौकिक शक्ति से हलाहल को कंठ के नीचे नहीं उतरने दिया, जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। इस तरह पौराणिक मान्यताओं में संहारकर्ता कहे जाने वाले महाकाल ने रक्षक की अद्वितीय भूमिका निभाई। यही कारण है कि हमारे देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सभी जगह आशुतोष भगवान शिव की पूजा समान भाव से होती है। सबसे अधिक मंदिर भी भगवान शिव के ही हैं। सामाजिक बसावटों से लेकर श्मशान तक में। समुद्र मंथन से लक्ष्मी भी प्रकट हुई थीं, जो भगवान विष्णु के हिस्से में आईं और तबसे लेकर आज तक हर किसी की पहली मनोकामना लक्ष्मी को प्राप्त करने की ही होती है। संसार के कल्याण की भावना के साथ भगवान नीलकंठ की तरह किसी तरह का हलाहल पीने की पहल कोई नहीं करता। शहीद भगत सिंह का लोग सम्मान तो करते हैं, लेकिन चाहते हैं कि खुद को कुर्बान कर देने वाला ऐसा शख्स हमारे परिवार में नहीं, पड़ोसी के परिवार में ही जन्म ले। यही वजह है कि हम सब स्वार्थ के पुतले बनते जा रहे हैं और सामाजिक मूल्यों का दिनोंदिन पतन होता जा रहा है। जब तक हमारा यह रवैया नहीं बदलेगा, कुछ भी नहीं बदलने वाला। आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक मंगलकामनाएँ 30 September 2017

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