Thursday, October 19, 2017

तृप्यन्ताम्...तृप्यन्ताम्...


मातृभाषा हिंदी के शब्दों को भी अच्छी तरह बोलना सीखने से कहीं पहले देववाणी संस्कृत के कई शब्द हमारे बाल मनो-मस्तिष्क पर अंकित हो गए थे। इनमें पहला था-तृप्यन्ताम्, तृप्यन्ताम्...दरअसल पितृपक्ष के दौरान बड़का बाबू जब कई दिनों तक लगातार पूर्वजों का पिंडदान-तर्पण करते तो पुरोहित के साथ-साथ उनके द्वारा बार-बार दुहराया जाने वाला ‘तृप्यन्ताम्.तृप्यन्ताम्...’ बरबस ही हम बच्चों की जुबान पर चढ़ जाता। कुछ बड़े होने पर शारदीय नवरात्र में घर के पास होने वाली सामाूहिक दुर्गा पूजा हम बच्चों को लुभाने लगी। पूजा में रोजाना मिलने वाला प्रसाद खास आकर्षण होता हमारे लिए। वहां नौ दिन तक लगातार सप्तशती का पाठ होता। सप्तशती के सात सौ श्लोक के विषय में तो हम क्या जान-समझ पाते, पर ‘नमस्तस्यै। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै नमो नम:’ बिना किसी विशेष प्रयास के हमें कंठस्थ हो गया था। समय बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया। वर्ष 2012 में बाबूजी के परम सत्ता में विलीन हो होने के बाद से परंपरा का निर्वाह करते हुए पूर्वजों की आत्मोन्नति के लिए पिंडदान-तर्पण मैं भी करता हूं। इस दौरान देवताओं, ऋषियों के साथ ही वनस्पति, पर्वत, जीव-जंतुओं तक के लिए तर्पण का विधान है। कई लोग इस पूरी प्रक्रिया को ढकोसला बताने में संकोच नहीं करते। उनके अनुसार पूर्वजों को तृप्त करने का यह अनुष्ठान कदापि तर्कसम्मत नहीं है। हमारे द्वारा किया गया पिंडदान-तर्पण पितरों तक पहुंचता है या नहीं, इससे उन्हें तृप्ति मिलती है या नहीं, इसका प्रमाण तो मैं नहीं दे सकता, लेकिन जिन्होंने अपने जीवन का हरेक पल हमारी उन्नति के लिए समर्पित कर दिया, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का यह प्रयास हमें अवश्य तृप्त कर जाता है। ...और तृप्ति का यह भाव जीवन के सभी भावों से बढ़कर है। 08 September 2017

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