हमारे गांव में पैदा हुए शिशु का ईश्वर से सबसे पहला परिचय कुलदेवता से होता है। छठी पर बच्चे को कुलदेवता के सान्निध्य में उसे सुलाकर पूजा की जाती है। इसके बाद माता-पिता और परिवार के लोगों का झुकाव जिस देवता विशेष के प्रति होता है, बच्चे भी उसी हिसाब से अपने इष्ट का चयन कर लेते हैं । अपनी समझ विकसित होने पर कुछ बच्चे अलग राह पर भी बढ़ जाते हैं।
जहां तक मैं याद कर पाता हूं, मां रविवार का व्रत रखती थी, जो सूर्यदेव को समर्पित था। इसके अलावा मंगलवार को हनुमान जी के नाम पर उनका उपवास रहता था। हम भाई-बहनों को इन दोनों ही दिन नैवेद्य के प्रसाद का इंतजार रहता था। होश संभालने के बाद मैंने सबसे पहला व्रत श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का ही रखा था।
हमारे यहां बच्चों में जन्माष्टमी का बड़ा क्रेज था। इससे एक दिन पहले भोर में उठकर सभी भाई-बहन जमकर चिवड़ा-दही खाते। इसे स्थानीय बोली में सरगही कहा जाता है । इसके बाद हमें सोने की हिदायत दी जाती, लेकिन झूला झूलने की धुन ऐसी सवार होती, कि नींद आने का सवाल ही नहीं उठता था।
सूरज की पहली किरण फूटने के साथ ही हम रस्सी और पीढ़ा लेकर निकल जाते । घर के बाहर ही आम का बगीचा था। उसकी डाल पर झूला डालकर उस पर सबसे पहले चींटी को झूलाते। यह एक टोटका था कि हम झूले पर से गिरें नहीं । दोपहर में स्नान के बाद पास के शिव मंदिर जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते। तब तक भूख भी जोर मारने लगती, जिसे शरबत पीकर शांत किया जाता । शाम होने पर आंगन में पंगत लगती, और सभी बच्चे दूध-केला, अमरूद, साबूदाने की खीर आदि का भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाकर खुद भी जीमते।
इस तरह संसार को प्यार का पाठ पढ़ाने वाले मनमोहन कृष्ण कन्हैया से हमारा रिश्ता जुड़ा और समय बीतने ते साथ-साथ दिनों दिन और भी प्रगाढ़ होता जा रहा है । आज बचपन के एक दोस्त से बातचीत के दौरान पुरानी यादें ताजा हो आईं । सोचा, यादों की इस दुनिया में आप सभी को भी सैर करा दूं। जय श्री राधे... जय श्री कृष्ण
18 August 2017
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