Friday, September 1, 2017

धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले...


ऐतिहासिक महत्व के शहर में रहने का यह साइड इफेक्ट है कि चाहकर भी आप वहां के महत्वपूर्ण स्थानों को इग्नॉर नहीं कर सकते। लखनऊ में रहते हुए अच्छा-खासा समय हो गया, लेकिन कभी तफरी का मौका नहीं मिला। पिछले दिनों कुछ ऐसा सुयोग बना कि छुट्टी न होने के बावजूद दिन के आराम को मुब्तिला कर मेहमान नवाजी का फर्ज निभाने के लिए बड़ा इमामबाड़ा (भूलभुलैया) देखने जाना पडा। गाइड ने स्वाभाविक रूप से अपना रटा-रटाया टेप ऑन कर दिया था । वह अपनी रौ में इस ऐतिहासिक इमारत की खूबियां बताता जा रहा था। इसी क्रम में उसने हम सभी को इस इमारत के एक छोर पर खड़े होने को कहा और खुद करीब 30 फीट दूर दूसरे छोर पर चला गया। वहां जाकर उसने कागज का एक टुकड़ा फाड़ा, जिसकी आवाज वहां पर्यटकों की भीड़ के कारण हो रहे कोलाहल के बावजूद साफ-साफ हमें सुनाई दे रही थी। इसके बाद गाइड ने हमलोगों से कहा कि हम दीवार से कान लगाएं, वह दीवार की दूसरी ओर कुछ दूर जाकर वहां से कुछ शब्द बोलेगा, जो हमें यहां से स्पष्ट सुनाई देगा। वाकई ऐसा ही हुआ। हमारे ग्रुप के सभी आठ सदस्यों ने बारी-बारी से इसे अनुभव किया। दिल्ली से मां और छोटी बहन के साथ आये बंगाली युवक की जिज्ञासा को भांपते हुए गाइड ने रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि करीब आठ फीट चौड़ी यह दीवार अंदर से खोखली बनाई गई है। इसीलिए आवाज दूसरी ओर से सुनाई पड़ती है। इस तरह बचपन से ही बड़े-बुजुर्गों की दी गई हिदायत - दीवारों के भी कान होते हैं- हमारे सामने जीवंत हो गया। बरबस ही मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि हम मनुष्यों की फितरत भी तो इस दीवार की तरह ही है। जो अंदर से खोखला होता है, वह अपनों की बताई राज की बात भी गैरों को बताकर उपहास का पात्र ही नहीं बनता, सदा- सर्वदा के लिए विश्वास भी खो बैठता है। ... और जो अंदर से गंभीर होते हैं, वे जान भले चली जाए, किसी और के सामने राज नहीं खोलते। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी कैसी पहचान चाहते हैं

No comments: