बचपन के दिनों में एक किताब आती थी ‘मनोहर पोथी’। महज चार आने की इस किताब की मदद से हमारे जैसे अनगिनत बच्चों ने अक्षर और गिनती सीखी होगी। पाठ्यक्रम से इतर जो किताब मैंने सबसे पहले पढ़ी वह थी-मोहन से महात्मा। महात्मा गांधी की जीवनी पर आधारित रंगीन चित्रों से सजी इस किताब ने मन में पढ़ने की ऐसी चाव जगाई कि नंदन, कादंबिनी, माया, मनोरमा, मनोहर कहानियां के रास्ते पत्र-पत्रिकाओं से एक नाता-सा जुड़ गया और जीवन में ही नहीं, मेरे बिस्तर पर भी इन किताबों ने बदस्तूर कब्जा जमा लिया। मां की डांट, बहन की मनुहार और पत्नी की नाराजगी के बावजूद यह आदत नहीं छूटी।
दसवीं के बाद जब पढ़ाई के लिए पहली बार गांव छोड़कर कमिश्नरी मुख्यालय का रुख किया, तो दो टुकड़ों में करीब दो-ढाई घंटे का सफर तय करना होता था। इस दौरान किताबें अच्छी हमराही साबित हुईं। अभी हाल के दिनों की बात करूं तो जयपुर से लखनऊ वाया दिल्ली यात्रा के दौरान साहित्यिक पत्रिका
‘कुरजां’ आधी से अधिक पढ़ ली थी और सिनीवाली जी Siniwali Sharma का कथा संग्रह ‘हंस अकेला रोया’ का तो लखनऊ पहुंचते-पहुंचते पारायण ही कर लिया था।
लखनऊ में एकल प्रवास के दौरान कोई टोकने वाला भले नहीं है, लेकिन बिस्तर पर फैली किताबों को देखकर खुद ही कोफ्त होती है। कई बार कोशिश भी करता हूं, लेकिन हफ्ते दो हफ्ते बाद फिर वही हाल...ऐसे में जब मंगलवार को Vir Vinod Chhabra श्री वीर विनोद छाबड़ा जी से मिलने गया तो उनके बिस्तर पर किताबों को काबिज देख तसल्ली हुई कि मैं अकेला ही नहीं हूं इस मर्ज का मारा, कई दीवाने मुझसे पहले भी हो चुके हैं घायल...
25 मई 2017
No comments:
Post a Comment