आम तौर पर जहां भाभी और ननद की बात सामने आने पर इन दोनों में छत्तीस का आंकड़ा रहने की बातें ही जेहन में आती हैं, वहीं भाभी और देवर का जिक्र होने पर हंसी-मजाक, चुहलबाजी से दीगर कोई बात सोची भी नहीं जा सकती। अन्य राज्यों में जहां शादी-विवाह के दौरान महिलाएं नृत्य के माध्यम से खुशी का इजहार करती हैं, वहीं बिहार के गांवों में ऐसा कोई रिवाज नहीं है। वहां शादी-विवाह में महिलाएं ढोल-मजीरे जैसे किसी साज के बगैर मंगल गीतों के जरिये नई पीढ़ी को संस्कार की सीख देने के साथ ही अपनी खुशी को भी अभिव्यक्त करती हैं। इसके बावजूद न जाने कैसे हम बचपन में खेल के दौरान अक्सर ही ये पंक्तियां गुनगुनाते-
आलूदम, मसाला कम। भउजी नाचे छमाछम...
शायद इसके पीछे अवचेतन में कहीं यह भावना बलवती रही हो कि हमारी भउजी हमेशा खुश रहें। उनका चेहरा कभी उदास न हो, क्योंकि जब मन खुश होता है तभी नाचने की कल्पना की जा सकती है। और इस तरह अनजाने में ही हम नारी सशक्तीकरण के पैरोकार बने रहे।
एक वरिष्ठ सहयोगी की फेसबुक वॉल पर वर्षों बाद भाभी से मिलने का जिक्र देखने के बाद बरबस ही यह प्रसंग मेरे स्मृति पटल पर कौंध-सा गया।
21 August 2017
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