Thursday, October 19, 2017

पापा जल्दी आ जाना...


फिल्म " तकदीर " का यह गीत मुझे बेहद पसंद है । हां, मेरी तकदीर अच्छी रही कि इस गीत में अंतर्निहित भावनाओं को शब्दों में पिरोकर बाबूजी से ऐसी मनुहार करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। बाबूजी पड़ोस के गांव में शिक्षक थे, सो शुरुआती दिनों में उनके साथ ही उनके स्कूल जाता। ऐसे में उनके साथ बिताये जाने वाले पलों में कुछ और भी इजाफा हो जाता । कक्षाएं बढ़ने की वजह से स्कूल बदल गये, फिर भी स्कूल से थोड़ी देर के अंतराल में हम घर पहुंच जाते। छुट्टी के दिनों में यह साथ खेत-पथार से लेकर गाछी-बिरिछी तक विस्तृत हो जाता । इस तरह बचपन में अच्छा-खासा समय बाबूजी के साथ बीता। हाई स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कमिश्नरी मुख्यालय मुजफ्फरपुर जाना हुआ तो भी हर हफ्ते- पखवाड़े गांव आ ही जाता। ऊंची कक्षाओं में परीक्षा का दबाव इसे खींचकर महीना भर भी कर देता, लेकिन परीक्षा खत्म हो जाने के बाद अगली कक्षा में एडमिशन के बीच का समय गांव में बिताकर इसकी भरपाई कर लेता। पढ़ाई पूरी होने के बाद रोजी-रोटी के सिलसिले में जब जयपुर पहुंचा तो स्वाभाविक रूप से गांव-घर से दूरी जरूर बढ़ गई, लेकिन पहले पत्राचार, फिर फोन और मोबाइल की मदद से इस दूरी को पाटने की कोशिश बदस्तूर बरकरार रही। इस बीच साल में दो-तीन बार बाबूजी के चरण रज लेने सशरीर गांव जाने का सिलसिला भी कभी टूटा नहीं । तकरीबन पांच साल पहले बाबूजी जब इस भौतिक शरीर को त्याग कर परमपिता परमेश्वर से एकाकार हो गये, तब से एक भी पल ऐसा नहीं बीता, जब वे दिमाग से दूर हुए हों। कल रात यहां जयपुर में एक मित्र के पिताजी को फोन किया तो मित्र के करीब चार साल के बेटे ने मोबाइल झटक लिया। उसे शायद अपने वीक एंड वाले पापा से मिलने की बेताबी थी। तभी तो वह बार- बार दुहरा रहा था - पापा अभी नहीं आए । खुद कहने से मन नहीं माना तो उसने अपनी दो साल बड़ी बहन को मोबाइल पकड़ा दिया। उसका भी यही राग था- पापा अभी नहीं आए । मैंने बच्चों से कहा, बस आने ही वाले हैं और इस तरह इन बाल गोपालों की बतकही के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की यादों में खो गया। 02 September 2017

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