सबकी पुड़िया, हमारा सनेस
पुड़िया शब्द का जिक्र करते ही जेहन में कागज के छोटे टुकड़े का खयाल आता है, जिसमें परचून दुकानदार या पनसारी 25-50 ग्राम सामान लपेटकर ग्राहकों को देता है। मगर बिहार में "पुड़िया" शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया जाता है। हमारे यहां चने की दाल भरी पूड़ी विशेष, सर्वप्रिय और सर्वकालिक-बारहमासी खाद्य पदार्थ है। इसके साथ यदि खीर की जुगलबंदी हो जाए तब तो अहोभाग्य। यही कारण है कि साल के बारह महीने में से करीब आठ महीने किसी न किसी पर्व के बहाने कुलदेवता को खीर-पूड़ी का भोग लगाया जाता है और प्रसाद के रूप में लोग जमकर इसका लुत्फ उठाते हैं।
अभी हाल ही मैंने फेसबुक पर " छींके पर टंगा मन" शीर्षक पोस्ट में शादी-विवाह-उपनयन के अवसर पर रिश्तेदारों के यहां बहंगी या भार में नेवता की सामग्रीभेजे जाने का जिक्र किया था। हालांकि ऐसे सुअवसर तो अमूमन दो-चार वर्ष में एकाध बार ही आ पाते हैं। ऐसे में रिश्तेदारों के साथ संबंधों में प्रेम की ऊष्मा बनाए रखने के लिए सामान्य दिनों में भी बिना किसी प्रयोजन के भी उपहारों के परस्पर आदान-प्रदान का विधान गढ़ लिया गया। ...और ये उपहार खाद्य सामग्री के रूप में हों तो रिश्तेदार के परिवार ही नहीं, आस-पड़ोस तक भी इसकी खुशबू फैलनी स्वाभाविक है।
ऐसे में हमारे यहां विशेष रूप से नवविवाहिता बेटी और बहू के यहां वर्ष भर विशेष अवसरों पर अपने घर में बनी शुद्ध-स्वादिष्ट-विशिष्ट खाद्य सामग्री भेजने का सामाजिक चलन हो गया। मसलन छठ पूजा के अवसर पर ठकुआ, मकर संक्रांति पर चिउड़ा-दही, लाई-तिलवा आदि-इत्यादि। एक तथ्य यह भी कि चार-पांच दशक पहले नवविवाहिता बेटी या बहू महीनों की कौन कहे, तीन से पांच साल तक लगातार मायके या ससुराल में रहा करती थी। तब आज की तरह न तो यातायात के संसाधन थे कि सुबह जाकर शाम में लौट आएं या शाम में जाकर अगली सुबह लौट आएं। ऐसे में बड़े-बुजुर्गों के दिल में जब ससुराल में रह रही बेटी या मायके में रह रही पतोहू (बहू) के प्रति प्रेम उमड़ने लगे तो खीर-पूड़ी तो भेजी ही जा सकती थी। इसमें भी पूड़ी की ही प्रधानता-अधिकता होने के कारण यह "पुड़िया" के रूप में ख्यात हो गया।
"पुड़िया" यानी एक टोकड़ी में केले का पत्ता बिछाकर बाजाप्ता चारों तरफ पूड़ी और बीच में तसली में खीर रखी जाती। इसके ऊपर फिर सलीके से केले के पत्ते रखने के बाद इसे साफ कपड़े से अच्छी तरह बांधा जाता। ...और फिर इसे एक आदमी अपने सिर पर रखकर पैदल ही निकल पड़ता। उसकी मंजिल तीन-चार किलोमीटर से लेकर चार-पांच कोस और कई बार इससे भी अधिक हुआ करती। तब आज की तरह मोबाइल तो था नहीं, चिट्ठी लिखना भी हर किसी के वश की बात नहीं थी। ऐसी स्थिति में पुड़िया ले जाने वाले के माध्यम से ही बेटी या बहू को जरूरी संदेश भी भेजे जाते। इसी से अपभ्रंश होकर संदेश शब्द सनेस बन गया।
...और यह "पुड़िया" और "सनेस" ले जाने के लिए स्वभाव से धीर-गंभीर आदमी की दरकार होती थी जो मौखिक संदेश की अहमियत को समझते हुए उसे सही शब्दों में लक्ष्य तक पहुंचा सके। साथ ही उसका शरीर से मजबूत होना भी जरूरी होता था जो टोकड़ी में पर्याप्त मात्रा में रखी गई खीर-पूड़ी का वजन सिर पर उठाकर मीलों का सफर पैदल तय कर सके। हमारे यहां यह जिम्मेदारी अमूमन मल्लाह-निषाद समुदाय के कुछ विशिष्ट व्यक्ति निभाया करते थे और अन्य लोगों की अपेक्षा समाज में उनकी अच्छी पूछ-परख हुआ करती।
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