छींके पर टंगा मन...
आज से 40-45 साल पहले गांवों में अधिकतर मकान फूस के बने होते थे। कुछेक मकानों की दीवालें (भीत) जरूर मिट्टी की होती थीं, लेकिन उनके ऊपर भी फूस की ही छप्पर होती थी। हां, कुछ छप्परों की इज्जत खपड़े से ढंकी होती थी जो इनके खास होने का अहसास दिलाती थी। पक्की छत वाले मकान तो बस इक्के-दुक्के ही हुआ करते थे।
संयुक्त परिवार के उस जमाने में जब लोगों के रहने के लिए ही कमरे कम पड़ जाते थे तो अलग से रसोईघर की बात बेमानी ही होगी। हां, कुलदेवता के लिए एक कमरा अवश्य होता था, जिसे अग्नि देवता भी शेयर कर लिया करते थे। पर्व-त्योहार के सुअवसर पर विशेष व्यंजन देवता घर में रखे चूल्हे पर बनाए जाते। वैसे अमूमन सुबह-शाम आंगन में बने चूल्हे पर ही भोजन बनाया जाता। हां, बारिश और तेज धूप होने पर यह जिम्मेदारी बरामदे-ओसारे पर बने चूल्हे के ऊपर आ जाती। हर घर में एक दुअछिया चूल्हा (जिसमें एक ही आंच में दो चूल्हों पर खाना बन सके) जरूर होता था। इसके साथ एकाध स्पेयर चूल्हा भी होता था, मानों किसी कैबिनेट मंत्री के साथ राज्यमंत्री अटैच कर दिए गए हों। सब्जी तैयार होने या दूध उबालने के बाद उसे स्पेयर चूल्हे पर रख दिया जाता था।
तब दही तथा अन्य भोज्य पदार्थों को बच्चों और बिल्ली की पहुंच से बचाने की बड़ी समस्या हुआ करती थी। मगर जीवन में हर कदम पर समस्याओं का सामना करते रहने वाले गांव के लोग खुद इनका समाधान खोजने का भी माद्दा रखते हैं। सो पटुआ (जूट) की रस्सी से छींका (सिकहर) बनाकर उसे छप्पर से टांग दिया जाता और उस पर दही की छोटी मटकी आदि रख दी जाती। संभवतया इसी से " बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना" कहावत बनी होगी।
इसी छींके का थोड़ा संशोधित और विकसित रूप बहंगी थी। बांस के साढ़े तीन-चार हाथ लंबे टुकड़े को चीरकर उसे अच्छी तरह छील दिया जाता कि उसकी धार खत्म हो जाए। उसके दोनों छोर पर अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत रस्सी का छींका बनाया जाता। घर में लटकाए जाने वाले छींके से थोड़ा बड़ा, जिसमें बड़ी टोकरी, दही की हांडी या ऐसी ही चीजें अटकाई जा सकें। इस बहंगी को कंधे पर रखकर वस्तुएं एक से दूसरे स्थान पर पहुंचाई जातीं। श्रवणकुमार ने ऐसी ही बहंगी में माता-पिता को बिठाकर तीर्थाटन कराया और मातृ-पितृ भक्ति के अप्रतिम पर्याय बन गए।
गांव में शादी-विवाह-उपनयन आदि के अवसर पर होने वाले आयोजनों को यज्ञ कहते हैं, जो अपभ्रंश होकर जग बन जाता है। इसके साथ ही एक मान्यता जुड़ गई है ---जग के मालिक जगदीश। अब हर किसी की किस्मत तो भक्त शिरोमणि नरसी मेहता जैसी नहीं होती कि साक्षात श्रीकृष्ण भगवान बेटी की शादी में भात भरने के लिए पहुंच जाएं, लेकिन सामाजिक अर्थशास्त्र के जरिए इसका भी विकल्प खोज लिया गया। जिस परिवार में बेटी की शादी या बच्चों के उपनयन होने वाले हों, उसके सभी नाते-रिश्तेदार अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार दही, चिवड़ा, आटा, चावल सहित अन्य जरूरी सामान का इंतजाम कर लेते। और नेवता के रूप में जब दो-चार-छह लोग इन वस्तुओं को बहंगी में रखकर चलते तो क्या मनोहारी नजारा दिखता। इस तरह एक का बोझ दस की लाठी में बंट जाती। इस बहंगी को ले जाने की भी विशेष हिकमत हुआ करती थी और विशेष अवसरों पर इस हिकमत को जानने वाले विशेषज्ञों की पूछ-परख बढ़ जाया करती थी।
बीतते हुए समय के साथ गांवों में भी सब कुछ बदल गया। वहां भी सरकारी योजनाओं के तहत अब पक्के मकान बनाए जाते है। ऐसे में फूस के मकान तो बस गिनती के ही बचे हैं। जाली वाली आलमारी की कौन कहे, फ्रिज भी गांवों तक पहुंच गया है। ऐसे में पक्की छत वाले मकानों में छींके अनुपयोगी करार दिए जाने के बाद इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गए हैं। हालांकि शादी-विवाह-उपनयन के अवसर पर रिश्तेदारों के यहां नेवता के रूप में सामान भेजने की परंपरा अब भी बरकरार है, लेकिन इसे बहंगी में रखकर भेजने का चलन खत्म हो गया है। कोसों दूर तक बहंगी ले जाने वाले भी अब कहां बचे...! सो लोडिंग ऑटो या मिनी ट्रक में सारा सामान रखवाकर भेज दिया जाता है।
No comments:
Post a Comment