अपनों के आने की आहट
प्यार, स्नेह, ममता...इन शब्दों का जिक्र आते ही सहज ही जेहन में मां का चेहरा आ जाता है। फिर जहां मां का जन्म हुआ हो, वहां प्यार, स्नेह और ममता की भावनाओं का कितना बड़ा खजाना होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। तभी तो ननिहाल में मिले स्नेह-सुख को हम आजीवन भूल नहीं पाते हैं। मेरा जन्म ननिहाल में ही हुआ था, लेकिन बचपन के जिन दिनों की बातें याद कर पाता हूं, मुझे लगातार लंबे समय तक कभी ननिहाल में रहने का सुअवसर नहीं मिला। मगर जितने भी वहां बिताए, उनकी अमिट छाप स्मृति पटल पर आज भी अंकित है।
तब कहीं आने-जाने के लिए आज की तरह सुविधा नहीं थी। दिन भर में हाजीपुर से समस्तीपुर जाने वाली केवल दो बसों का ही सहारा था। अपने घर से बस से मुसरीघरारी और फिर वहां से रिक्शा से ननिहाल। हालांकि कई बार मां के साथ अपने घर से भी रिक्शे पर नॉन स्टॉप ननिहाल जाने का मौका मिला। तब न जमाना उतना एडवांस हुआ था और न लोग ही मेहनत से बचने वाले। खेती-किसानी वाले परिवारों में बहुतेरे काम घरों में भी हुआ करते थे। इनमें खलिहान से आने वाले अनाज को चुन-बीछकर साफ करने से लेकर मकई को उलाने (भूनने), पीसने, गेहूं पीसने, धान कूटने आदि का काम महिलाओं के जिम्मे हुआ करता था। खाना बनाना तो रुटीन वर्क था ही।
...तब तैयार अनाज को आंगन से उठाकर कोठी में रखने और फिर जरूरत पड़ने पर कोठी से निकालने के लिए बांस के बने सूप, डगरा, टोकरी आदि इस्तेमाल की जाती थी। बांस की टोकरी के कितनी भी महीन और बेहतरीन बुनाई के बावजूद छोटे अनाज गिरने का डर रहता था, सो महिलाएं उन टोकरियों को गोबर से लीप देती थीं। इससे सारे छेद बंद हो जाते और फिर अनाज की कौन कहे, आटा भी इससे नहीं गिर पाता था।
ग्रामीण जीवन में बहुत से प्रतिमान गढ़ लिए जाते हैं। मसलन, कौए के बोलने से किसी प्रियजन के शुभागमन की कल्पना, दाहिनी आंख फड़कने से किसी शुभ कार्य होने की आशा का संचार आदि। ...तो मेरी नानी ने भी कुछ ऐसा ही प्रतिमान गढ़ रखा था। जैसे ही दरवाजे पर रिक्शा रुकता, सूप-डगरा आदि लीपना छोड़कर हमारे पास आ जातीं और कहतीं- मैंने जब इन्हें लीपना शुरू किया था, मुझे लग गया था कि बेटी आएगी। यह सुनकर हमें बहुत ही अच्छा लगता। संभव है कुछ ऐसा ही अहसास मेरी मौसियों और मौसेरे भाई- बहनों को भी हुआ हो।
रात को अपेक्षाकृत जल्दी सो जाने के कारण नींद खुल गई तो मोबाइल पर बहुचर्चित फिल्म " थप्पड़" देखने लगा। इसके एक दृश्य में नायिका के अचानक ससुराल से सब कुछ छोड़कर आ जाने पर दुनियादारी के सिद्धांतों की बोझ तले दबी मां की ममता से अधिक पिता का स्नेह उमड़ पड़ता है। ...और फिर उस बोझिल वातावरण को सामान्य बनाने के लिए वह जो कुछ बोलते हैं, उसे सुनकर मुझे नानी और उनकी बात याद आ गई। ... फिर मैं बची हुई फिल्म छोड़कर अपनी यादों को सहेजने में जुट गया।
09 मार्च 2020
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