सबको खुश रखने वाला रुलाकर चला गया
वर्ष था 1991। जून का महीना। गर्मी अपने रंग दिखा रही थी। मैं बीए की परीक्षा देने के बाद गांव आ गया था। रिजल्ट छह-आठ महीने बाद ही आना था। जीवन के महासमर में उतरने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के चक्रव्यूह को भेदने की शुरुआत हो चुकी थी। मगर इसी बीच हालात कुछ ऐसे बदले कि मंजिल ही बदल गई। अब तक बाबूजी से हर महीने मिलने वाले पैसे से पढ़ाई की गाड़ी खींच रहा था। अब मुझे जीविकोपार्जन की छोटी-सी शुरुआत के सिलसिले में किशनगंज जाना पड़ गया। रात करीब आठ बजे हाजीपुर से सिलीगुड़ी की बस पकड़ी। पहली बार बस में इतना लंबा सफर। बस कहीं मेरे गंतव्य से आगे न बढ़ जाए। इसलिए आंखें नींद से बोझिल होने के बावजूद डर के मारे सो नहीं पा रहा था। पूर्णिया पार करते ही रिमझिम बरसात के सामने जून की गर्मी ने हार मान ली थी। मौसम सुहाना हो गया था। ...और शायद यह नियति का संकेत था कि आगे भी सब कुछ मनभावन होने वाला है।
सूरज की पहली किरण उगने के साथ ही मैं किशनगंज की धरती पर था। नई जगह। नया परिवेश। नए लोग।
... और काम तो अलहदा था ही। कॉलेज लाइफ से परे दुनियादारी के जीवन में पहला कदम। वहां मिले कई सारे लोगों में से एक थे दास बाबू। सीएल दास। मोहल्ले के लोगों के लिए चुन्नी दा और बच्चों के लिए हर पल प्यार लुटाने वाले मिस्टर इंडिया जैसे चुन्नी काकू। उनसे मिलकर ऐसा लगता कि यह आदमी सामने वाले की भावनाओं का सच्चा कद्रदान है। पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने स्नेह का पिटारा मेरे लिए खोल दिया। फिर उसके बाद तो उनकी मदद से मेरे लिए हर राह हमवार होती चली गई।
मैट्रिक पास करने के बाद ही आगे की पढ़ाई के लिए गांव छोड़कर मुजफ्फरपुर चला गया था। उसके बाद बीए करने तक करीब सात साल अकेले वहां रह चुका था। हालांकि हफ्ते-पंद्रह दिन...ज्यादा हुआ तो महीने में एक बार घर चला ही आता था। मगर अब किशनगंज से हर महीने घर जाना संभव नहीं था।
तुलसी बाबा ने लिखा है - जा पर कृपा राम के होई। ता पर कृपा करे सब कोई। ... तो कुछ उसी तर्ज पर दास बाबू का स्नेह भाजन समझकर उनके परिवार वालों से लेकर मित्रों तक ने मुझ पर इस कदर अपना प्यार-दुलार लुटाया कि मुझे कभी घर से दूर रहने का अहसास नहीं हुआ। इस दौरान मैंने देखा कि पर्याप्त धन-संसाधन न होने के बावजूद लोगों की मदद के लिए दास बाबू किस तरह तत्पर रहा करते थे। उन सभी के साथ रहकर बंगाली समाज और उसके रहन-सहन को करीब से जानने-समझने का सुअवसर मिला, जिसके बारे में अब तक शरदचंद्र के उपन्यासों में ही पढ़ा था।
समय अपनी गति से बड़े ही खुशगवार तरीके से बीत रहा था कि एक बार फिर हालात ने पलटा खाया और नई शुरुआत के लिए मुझे किशनगंज छोड़ना पड़ा। बस स्टैंड में बिताए गए दर्द से बोझिल वो विदाई के पल आज तक नहीं भूले हैं। तब मोबाइल का जमाना नहीं था, सो पत्रों के माध्यम से ही कुशलता का आदान-प्रदान होता। यादों ने जब काफी सताया तो आठ-दस साल बाद समय निकाल कर किशनगंज गया। बता नहीं सकता, दास बाबू और किशनगंज के और मित्र कितने खुश हुए। पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल आ जाने के बाद यदा-कदा बात हो जाया करती थी। हर बार एक ही मनुहार-एक बार परिवार के साथ किशनगंज आइए। मैं हामी तो भर देता, लेकिन अपने मन मुताबिक कर पाने का अवकाश हर किसी को कहां मिल पाता है।
पिछले दिनों बार-बार फोन करने के बावजूद कॉल रिसीव न हो पाने से मेरी बेचैनी बढ़ गई थी। बदलते हुए समय के साथ रोजी-रोजगार के सिलसिले में किशनगंज के दूसरे मित्रों का ठिकाना भी बदल गया। सो काफी प्रयासों के बाद दास बाबू के मोहल्ले के एक लड़के का मोबाइल नंबर मिल पाया। उससे बात हुई तो पता चला कि दास बाबू को पैरालिसिस का अटैक पड़ गया है और वे बिस्तर पर हैं। तभी से सोच रहा था कि एक बार जाकर उनसे मिलूं, लेकिन एक के बाद एक व्यस्तता कदम रोकती रही। किशनगंज के ही एक बच्चे को जन्मदिन की बधाई देने के लिए कल रात फोन किया तो पता चला कि दास बाबू नहीं रहे। इसके साथ ही उनके साथ बिताए गए पल स्मृति पटल पर चलचित्र की तरह दृश्य दर दृश्य आते जा रहे हैं। दिल कहता है कि यह सूचना गलत हो, मगर ... काश ! ऐसा हो पाता। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सबको खुश रखने वाले दास बाबू को अपने चरणों में खुशनुमा माहौल प्रदान करें।
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।
21 मार्च 2020
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