वुहान, विश्व और वसुधैव कुटुंबकम्
मेरी दादीजी बड़ी भोली और सरल-सहज-सीधी स्वभाव की थीं। वे ज्यादा पूजा-पाठ नहीं किया करती थीं। हां, सुबह स्नान करने के बाद नियमित रूप से सूर्य भगवान को एक लोटा जल का अर्घ्य दिया करती थीं। इसके बाद भगवान सूर्य से मुखातिब होकर अस्फुट स्वर में वे कुछ बोला करती थीं। बाल-सुलभ जिज्ञासा के कारण मैं उनके पास खड़ा हो जाता यह जानने के लिए कि वे सूर्य भगवान से क्या कहती हैं।
जो कुछ मैं समझ सका, उसका सार यही था कि हे सूर्यदेव, सारे संसार का भला करना, उसके पीछे मेरे बच्चों पर भी कृपा बनाए रखना। किसी चालीसा, स्तोत्र, धर्मग्रंथ का पाठ नहीं, मगर भावना मानवता के सर्वोच्च स्तर पर- पूरे विश्व के कल्याण की आकांक्षा- वसुधैव कुटुंबकम् का इससे बढ़कर और कोई आदर्श हो सकता है क्या? संसार खुशहाल रहेगा तो हमारा जीवन भी सुखमय होगा, सुरक्षित होगा-इतनी उदात्त भावना।
जब हम पूरे विश्व को अपना परिवार समझने लगते हैं तो इसमें आसन्न संकटों से बचाव का दायित्व भी अधिक गुरुतर हो जाया करता है। ...तो इसका भी एक उदाहरण देखिए। उन दिनों हर किसान परिवार पशुपालक भी हुआ करता था। और सच कहूं तो पशु केवल पाले ही नहीं जाते थे, बल्कि वे परिवार के सदस्य हुआ करते थे। परिवार के सदस्यों की तरह पूरी जिम्मेदारी से उनकी देखभाल की जाती थी। उन दिनों पशुओं में "डकहा" नामक एक संक्रामक बीमारी हुआ करती थी। इसकी चपेट में आने पर देखते ही देखते मिनटों में ही पशु दम तोड़ देता था। आस-पड़ोस, टोला-मोहल्ले में ऐसी घटना होने पर लोग अपने पशुओं को उस बीमारी के संक्रमण से बचाने के लिए लाल रंग घोल कर पशुओं पर छिड़क दिया करते थे। यह महज टोटका था या एक तरह का वैक्सिनेशन, मगर था प्रभावी।
अब मौजूदा परिदृश्य पर नजर डालें तो आधुनिक तकनीक की बदौलत हम ग्लोबल विलेज की परिकल्पना को साकार होते देखकर फूले नहीं समाते थे। दूर देश में हुए आविष्कार हमारी जीवन शैली को अपने तरीके से प्रभावित करने लगे थे, लेकिन उस अनुपात में हमने अपनी सहृदयता-उदारता का विस्तार नहीं किया।
चीन का वुहान जब कोरोना वायरस की चपेट में आ गया तो वहां रोजाना दम तोड़ने वाले मरीजों की संख्या बाकी दुनिया के लिए महज एक संख्या भर मान ली गई। सारे देश अपने तईं निश्चिंत थे कि चीन की समस्या है तो वह भुगते या फिर बच सके तो बचे। दुनिया के देश समझ नहीं पाए कि जब हवाई यातायात के जरिए वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तो यह जानलेवा वायरस चीन की सीमाएं लांघकर उन तक भी पहुंच सकता है। नतीजतन आज लगभग पूरा विश्व इस महामारी की चपेट में आकर कराह रहा है। ब्रिटेन के सर्व सुविधा संपन्न बकिंघम पैलेस से लेकर मुंबई की सर्व सुविधा विहीन धारावी के चॉल तक में कोरोना ने पांव पसार लिए हैं।
मगर अफसोस, भीषण संकट की इस घड़ी में भी लोग इस अवसर को भुनाते हुए इसका लाभ उठाने से बाज नहीं आ रहे। जमाखोरी, कालाबाजारी लोगों का स्थायी भाव बन गया है। ऐसे में खुद की भावनाओं का परिमार्जन बहुत ही जरूरी है। विज्ञान तो जब इस वायरस का समाधान खोज पाएगा, खोज ही लेगा, लेकिन तब तक हमें खुद को सुरक्षित रखते हुए अपने आस-पड़ोस में रहने वाले जरूरतमंदों को अपनी सामर्थ्य के हिसाब से यथासंभव मदद और खुद के साथ संपूर्ण मानवता के कल्याण की कामना अवश्य ही करनी चाहिए।
# Vuhan #Corona # pandemic
04 अप्रैल 2020
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