गांव का जीवन ः एक-दूसरे की फिक्र
बचपन के दिनों को याद करता हूं तो कई घटनाएं स्मृति पटल पर किसी फिल्म के फ्लैशबैक सीन की तरह धमाचौकड़ी मचाने लगती हैं। करीब चार दशक पहले गांवों में गैस चूल्हा के बारे में लोग सोच भी नहीं सकते थे, गैस लाइटर की तो बात करना ही बेमानी होगी। माचिस भी हर घर में नहीं होता था। कई बार चूल्हा जलाने के लिए दूसरे के घर से आग मांगकर लानी पड़ती थी। अमूमन घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं को इस बहाने एक-दूसरे से बोलने-बतियाने, उनके जीवन में झांकने का अवसर भी मिल जाया करता था।
तब आज की तरह पति-पत्नी और एक या दो बच्चों वाली न्यूक्लियर फैमिली का चलन नहीं था। संयुक्त परिवार में पंद्रह-बीस आदमी का खाना बनाना पड़ता था। फिर भी महिलाएं बिना किसी शिकवा-शिकायत के लकड़ी और गोबर के गोइठा (उपले) पर खाना बनाती थीं। सुबह खाना बनाने के बाद गर्म राख में छिपाकर अधसुलगे गोइठा का टुकड़ा रख दिया जाता था और उसी से शाम में चूल्हा जलाया जाता। ...और फिर रात में भी यह प्रक्रिया दुहराई जाती जिससे अगली सुबह चूल्हा जलाकर खाना बनाया जाता। राख में दबी आग की चिनगारी के साथ आपसी संबंधों की गर्माहट को भी संजोकर रखना लोग बखूबी जानते थे।
तब लोगों के मन में आतिथ्य की भावना बड़ी प्रबल
हुआ करती थी। मगर संसाधनों का क्या किया जाए, उसकी सीमा तो हर देश-काल-परिस्थिति में रही है, मगर उसका समाधान खोजने में मनुष्य कब पीछे रहा है। गांव में घर ही आपस में एक-दूसरे से सटे हुए नहीं होते, लोगों के मन भी आपस में मिले होते हैं। सो किसी के घर में अचानक कोई मेहमान आ जाता तो आस-पड़ोस की महिलाएं अपने-अपने यहां से सब्जी, दही आदि लेकर आ जातीं और मेहमान के सामने कई तरह के व्यंजन परोसे जाने से उस परिवार की गरिमा अनायास ही बढ़ जाती।
एक बार की बात है। एक परिवार में लड़की की शादी थी। तब अपने टोले की कौन कहे, गांव भर की महिलाएं शादी के अगले दिन दूल्हे को देखने जाती थीं। उसके साथ लड़की के साथ भेजे जाने वाले सामान भी महिलाओं को दिखाए जाते। शाम तक यह सिलसिला चलता और अगले दिन भोर में लड़की की विदाई होती थी। मां जब दूल्हे को देखकर लौटी तो मुझे बुलाया और बिल्कुल नए-नवेले कवर में दो तकिए एक झोले में रखकर दिए। साथ ही हिदायत कि मैं शादी वाले घर में पिछले दरवाजे से जाकर लड़की की मां को एकांत में बुलाकर यह झोला थमा दूं। दरअसल लड़की को भेजे जाने वाले सामान में तकिया न देखकर मां की चिंता बढ़ गई थी और अपने स्तर से उन्होंने इसका समाधान निकाल लिया था।
उस जमाने में रेडिमेड कपड़े का चलन न के बराबर था। कपड़ा खरीदकर दर्जी से सिलवाया जाता था। बड़े परिवार में तो थान से कपड़ा कटवाकर लाते और परिवार के सभी बच्चे एक गणवेश में किसी बैंड पार्टी के सदस्यों की तरह दिखते। खैर, आम दिनों में सब कुछ सामान्य रूप से चलता, लेकिन पर्व-त्योहार (खासकर छठ महापर्व) के दौरान दर्जी के यहां भीड़ लग जाती, इसलिए लोगों की कोशिश होती कि काफी पहले कपड़ा खरीदकर दर्जी को दे दिया जाए। मगर हर किसी के लिए यह आसानी कब हुआ करती है। कई परिवार ऐसे भी होते, जिनके पास पैसों का जुगाड़ देर से होता। ऐसे में उन्हें सिलने से दर्जी हाथ खड़े कर देता। ऐसे में कई महिलाएं मेरी मां के पास आतीं और हंसते-हंसते उन्हें आश्वास्त करके भेज देतीं। मां के पास सिलाई मशीन नहीं थी,लेकिन ढिबरी की रोशनी में देर रात तक जगकर हाथ से ही कपड़े सिलती रहतीं। ... और इसका सुफल यह होता कि उन निराश महिलाओं के बच्चे भी छठ के घाट पर नए कपड़ों में सज-धज कर पहुंचते। तब उनकी मां के चेहरे पर संतोष का भाव और बच्चों के चेहरों पर खुशी की चमक देखते ही बनती थी। ...और मेरी मां के लिए यही उनका अमूल्य पारिश्रमिक होता था।
मेरा मकसद अपनी मां का महिमा मंडन करना कतई नहीं है, कई अन्य परिवारों की महिलाएं भी अपने उदार और उदात्त स्वभाव के कारण ऐेसे ही अपने-अपने तरीके से लोगों की खुशियां बढ़ाती रही हों, इसमें कतई संदेह नहीं।
पिछले दिनों मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर अन्नदाता ही पेट भरेगा शीर्षक से अपनी मनोभावनाएं उकेरी थीं। तब एक मित्र ने फोन करके इससे नाइत्तफाकी जताई। संभव है शहर में पले-बढ़े होने के कारण ऐसा हो। हालांकि मेरे प्रति अपने स्नेह के कारण सौजन्य वश उन्होंने मेरी फेसबुक वॉल पर कमेंट के रूप में अपनी असहमति दर्ज नहीं कराई। लेकिन उनके अंतर्मन में उठी शंका का समाधान करना मैं अपना फर्ज समझता हूं क्योंकि संभव है ये सवाल मेरे अन्य प्रियजनों के मन में भी वाा उठा हो, लेकिन मेरे प्रति सहृदयता के कारण उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया हो, सो मैंने एक बार फिर आप सभी का बहुमूल्य समय जाया किया।
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