Tuesday, May 5, 2020

जीवन की डगर पर कदमों के निशां

जीवन की डगर पर कदमों के निशां...

मेरे बचपन के दिनों में मेरे गांव में दो महिलाएं आती थीं। एक पूरब दिशा से, दूसरी पश्चिम दिशा से। उनके घरों की दूरी हमारे गांव से करीब छह-सात किलोमीटर तो रही ही  होगी। परस्पर विपरीत दिशाओं से आने के बावजूद दोनों का मकसद समान था। गांव की गलियों में घूम-घूमकर सामान बेचना। पूरब से आने वाली महिला सब्जी (कभी-कभी सीजनल फल भी) बेचती और पश्चिम से आने वाली साड़ी तथा महिलाओं- बच्चों के कपड़े। दोनों की पहचान उनकी संतान के नाम से थी। सब्जी बेचने वाली के बेटे का नाम असगर था, सो महिलाएं उसे असगरूआ माय कहकर पुकारतीं। कपड़े बेचने वाली की बच्ची का नाम वैजयंती था, सो महिलाएं उसे वैजयंती माय कहकर बुलातीं। इन दोनों ही महिलाओं ने बीबीए-एमबीए का कोर्स नहीं किया था, लेकिन व्यापार की बारीकियां बखूबी जानती-समझती थीं। बारगेनिंग ( मोलभाव) से लेकर उधार का पैसा वसूलने तक में उन्हें महारत हासिल थी। 

उस जमाने में लोगों ने लॉक- डाउन का नाम नहीं सुना था, मगर संभ्रांत परिवारों की महिलाएं ही नहीं, मध्यम वर्गीय परिवारों की महिलाएं भी घरों में लॉक अप की स्थिति में ही रहती थीं। इसकी वजह पर्दा प्रथा का चलन था या फिर यातायात  के साधनों की कमी, सीमित आर्थिक हालात या कुछ और...यह अलग शोध का विषय हो सकता है।

खैर...महिलाओं के लिए तथाकथित लॉक अप के उस दौर में लगन-तिहार, पूजा-पर्व या अन्य अवसरों पर लेने-देने या फिर खुद के उपयोग हेतु साड़ी या बच्चों के लिए कपड़ों की खरीदारी के लिए वैजयंती माय ही इकलौती विकल्प हुआ करती थीं। और जहां तक तरकारी की बात है तो उन दिनों घर के आगे-पीछे बाड़ी-झाडी में उगाई गई सब्जियों से ही काम चल जाता था या यूं कहें कि चला लिया जाता था। इमरजेंसी में या विशिष्ट अतिथि के आने पर ही सब्जी खरीदने की जरूरत होती थी और ऐसे में असगरूआ माय का आना आज के जमाने की होम डिलीवरी सेवा सरीखी महसूस होती।

तब गांव में पर्दा प्रथा के प्रचलन के बावजूद फेरी लगाने वाली इन दोनों महिलाओं को स्त्री होने के कारण घरों के अंदर प्रवेश में कोई दिक्कत नहीं होती थी। यही नहीं,  इन दोनों का गांव भर की महिलाओं से एक तरह का बहनापा हो गया था। उन दिनों बोतल में पानी लेकर चलने का चलन तो था नहीं, सो सिर पर सामान लेकर चलने की वजह से भरी दोपहरी में इन दोनों में से कोई कभी प्यास बुझाने के लिए पानी मांगतीं तो घरों की महिलाएं उन्हें इसरार-मनुहार करके घर में जो भी कुछ रूखा-सूखा होता, खिलाने के बाद ही पानी पीने देतीं। आम दिनों में भी गांव की महिलाएं अपनी सिक्स्थ सेंस से बिना बताए ही इन दोनों कर्मठ महिलाओं का चेहरा पढ़कर उनकी परेशानी भांप लिया करतीं और खरीदारी की जरूरत न होने पर भी उन्हें बिठा लेतीं तथा कुछ खिला-पिलाकर ही जाने देतीं।

अपनी मेहनत की बदौलत सब्जी और कपड़े बेचने वाली इन दोनों महिलाओं ने अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के साथ-साथ अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, उनके शादी-ब्याह तक किए। हालांकि आज से तीन-चार दशक पहले सब कुछ आज की तरह इतना आसान नहीं था। 

अभी गत फरवरी में भांजी की शादी में गया था तो मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर दस-बारह किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा। इस दौरान रास्ते में तीन-चार जगह मोटरसाइकिल चलाने वाले के पीछे कपड़े का गट्ठर और उसके पीछे महिला बैठी हुई दिखी। मैं बिहार में पहली बार यह सब देख रहा था सो अपनी जिज्ञासा रोक नहीं सका। मैं जिनके साथ मोटरसाइकिल से जा रहा था, उनसे पूछा तो पता चला कि जमाने ने बहुत तरक्की कर ली है। प्रगति के साथ-साथ गति भी बढ़ गई है। पति-पत्नी दोनों सुबह मोटरसाइकिल पर कपड़े का गट्ठर लेकर निकलते हैं और गांव-गांव घूमकर बेचते हैं। पत्नी अपनी नारी सुलभ विशिष्टताओं से महिलाओं को कन्विंस करती है, वहीं पति की भूमिका मोटरसाइकिल चलाने तक सीमित रहती है। 

कल रात एक वकील मित्र ने लॉकडाउन की अवधि फिर से बढ़ाए जाने को लेकर अपनी पीड़ा साझा की तो मुझे इन फेरीवालों की तकलीफों का भी अहसास हुआ कि रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले ये मेहनतकश भी इन दिनों कितनी परेशानी झेल रहे होंगे। ...और फिर बचपन के दिन सहसा ही दिमाग में धमाचौकड़ी मचाने लगे। लीजिए...आप भी झेलिए।

02मई 2020

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