जननी का वक्ष याद आता है...
इसे नियति की विडंबना ही कहेंगे कि दिन के उजाले में जो खुद अपनी राह भूल गया, उसे रात के अंधेरे में दूसरों को रास्ता बताना पड़ता है। जी हां, पिछले दो-ढाई दशक से यह सिलसिला जयपुर से लेकर लखनऊ तक अनवरत जारी है। रात की पारी में काम के बाद दफ्तर से लौटते समय अक्सर ही कोई कार या ट्रक वाला रोककर रास्ता पूछ लिया करता था, मगर पिछले कुछ दिनों से हालात बदल गए हैं।
कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के इस दौर में सड़कों पर गाड़ियां कम हो गई हैं , तो अब पैदल राहगीर रास्ता पूछ रहे हैं। चार-छह से लेकर पंद्रह-बीस के झुंड में चल रहे इन राहगीरों में से कोई दिल्ली, हरियाणा से तो कोई मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ से चला था और आगे उसे पूर्वांचल, बिहार या फिर पश्चिम बंगाल तक का सफर पैदल ही तय करना है। इनकी दुश्वारियों के बारे में सोचकर ही अात्मा रो पड़ती है, आंखें नम हो जाती हैं। इससे अधिक अपने हाथ में और है भी क्या?
मजबूर और मजदूर की केवल राशि ही एक नहीं होती, किस्मत भी एक जैसी ही होती है। हर कोई अपनी मां के लिए राजा बेटा ही होता है, मगर हालात उसे विवश कर देते हैैं। गांव में रोजगार के अवसरों की कमी (और कई बार स्थानीय समाज में लोकलाज का डर भी ) की वजह से ये माता-पिता, घर-परिवार सब कुछ छोड़कर बहुत दूर किसी शहर का रुख कर लेते हैं। ...और वहां अपनी मेहनत के पसीने के पारस से बदकिस्मती के लोहे को खुशहाली का सोना बनाने का जज्बा रखने वाले ये जांबाज अपने जीवन पथ पर अग्रसर रहते हैं।
मगर अफसोस, आज जब हालात विपरीत हुए तो इनके मालिकों ने इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। ...और सरकारी व्यवस्था तो भगवान भरोसे ही है। आकाश के फूल से जीवन में बहार की उम्मीद करना बेमानी ही कही जाएगी।
जब कोई रास्ता नहीं बचा तो अपनी बांहों के दम पर जीवन बसर करने वाले इन मेहनतकश मजदूरों ने अपने पांवों पर भरोसा किया और 1500-2000 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव के सफर पर पैदल ही निकल पड़े।
ऐसी ही विषम परिस्थितियों में होने वाली परेशानियों को रूपायित करते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी अमर काव्यकृति " उर्वशी" में लिखा है -
असफलता में उसे जननि का वक्ष याद आता है,
संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है।
... तो मुसीबत के मारे समय से हारे ये मेहनतकश मजदूर कदम दर कदम सड़कों को नाप रहे हैं। रास्ते में कहीं कोई ट्रक, हाफ डाला मिल गया तो उस पर सवार हो लिए। यहां तक कि दूध के टैंकर और कंक्रीट मिक्सर तक में बैठने से परहेज नहीं किया। इस दौरान उन्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ी होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
काश! इन विषम परिस्थितियों से सबक लेकर भविष्य में कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि हर किसी को उसके अपने गांव-कस्बे के आसपास ही उसकी योग्यता के हिसाब से रोजगार मिल सके। ...और घरों से दूर रहने वाले सभी कामगारों का डाटा सरकारों के पास हो, जिससे विपरीत हालात में उन्हें मदद पहुंचाई जा सके। नीति नियंताओं के ईमानदार प्रयासों से आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के युग में कुछ भी असंभव नहीं है।
( तस्वीरें इंटरनेट और मित्र सुशील जी Sushil Tiwari और हरेश जी Haresh Kumar की फेसबुक वॉल से साभार)
No comments:
Post a Comment