भउजी नाचे छमाछम...
आजकल न जाने क्यों लोग अपने बच्चों के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहने लगे हैं। ढाई-तीन साल का होते-होते बच्चे को प्ले स्कूल के नाम पर मानों किसीकैदखाने में भेज दिया जाता है। यही नहीं, इससे पहले सात-आठ महीने का होते-होते घर में ही नन्हे-मुन्ने बच्चे को तहजीब और सलीका सिखाने की क्लास शुरू हो जाती है। मासूम बच्चा मीठी तोतली जुबान में नाना-दादा बोलना शुरू करता ही है कि मां टोक देती है- नाना नहीं...नानाजी। दादा नहीं...दादाजी। नन्हा-सा बच्चा हक्का-बक्का रह जाता है। कुछ समझ ही नहीं पाता। और इसके साथ ही उसके नेचुरल विकास पर तमीज का ग्रहण जान-बूझकर लगा दिया जाता है।
पहले ऐसा नहीं था। चार-पांच दशक पहले के दिनों में लौटें तो उस समय गांव के लोग अपनी ही रौ में मस्त रहा करते थे। दुनियादारी से दूर अपने भदेसपन में रमे रहना उन्हें खूब भाता था। तब किसी संबोधन में जी नहीं लगाने से सभ्यता का संकट उत्पन्न नहीं होता था। तभी तो बचपन की बात तो दूर, उम्र बढ़ने के बाद भी सलीके के नाम पर दादा-दादी, चाचा, चाची, मामू-मामी, मौसी-मौसा, फूआ-फूफा आदि शब्दों के साथ जी लगाना नहीं सिखाया जाता था। ...और फिर बच्चों की कौन कहे, बड़े भी इस तथाकथित तहजीब को निभाने की जरूरत नहीं समझते थे।
इंसानी संबंधों की कौन कहे, सर्वशक्तिमान भगवान के साथ भी जी लगाने का चलन नहीं था। यहां तक कि लोग ईश्वर को तुम कहने तक में परहेज नहीं करते थे। प्रार्थना करते थे- "तुम्हीं हो माता,पिता तुम्हीं हो...", "तुम्हीं हो मेरे जीवन की नैया के खेवनहार..." आदि-इत्यादि। हां, समाज में एक बात जरूर देखने को मिलती थी। उस जमाने में भी तथाकथित भदेस कहे जाने वाले गांवों तक की महिलाओं में अपनी सास को सरकारजी या माताजी कहने का चलन अवश्य था। इसके पीछे वजह परिवार में सास की हनक थी या फिर बहू की ललक कि यह रिवाज चलता रहा तो भविष्य में उसकी बहू भी उसके संबोधन में जी लगाकर पुकारेगी, यह बता पाना मुश्किल है।
...मगर इन सारी आदतों-रिवाजों-रिवायतों से बेखबर एक रिश्ता ऐसा था, जिसमें बिना किसी के सिखाए अनायास ही "जी" जुड़ा था। जी हां, तब बड़े भाई की पत्नी को भउजी कहा जाता था। बच्चे अपनी रौ में आते तो अनायास ही टेर छेड़ देते- "भउजी नाचे छमाछम"। हालांकि कभी किसी भउजी को मैंने छम-छम नाचते नहीं देखा। उनके पायल की रुनझुन अवश्य सुनी है। हां, भैया की शादी की चर्चा से बच्चों के दिल जरूर छमाछम करके नाचने लगते - झूम उठते कि भउजी के कदमों के साथ हमारे अंगना में भी बहार आएगी।
मैं जब मिडिल स्कूल में था तब भैया की शादी हुई थी। भउजी के आने के हफ्ते-दस दिन तक हम तीन-चार भाई-बहनों में होड़ रहा करती थी कि आज किसे भउजी के साथ खाने का सौभाग्य मिलता है। ...और सच कहूं तो आगे चलकर की विशेष अवसरों पर विशिष्ट व्यक्तियों के साथ डाइनिंग टेबल साझा करने का मौका मिला, लेकिन कभी उस आनंद की अनुभूति नहीं हुई जो तब भउजी के साथ एक थाली में खाने में मिलती थी। ...भाभी के साथ खेली गई होली आज भी दिल को गुदगुदा जाती है। कभी उन्हें बीते दिनों की याद दिलाता हूं तो अपनी जवानी और हमारे बचपन को याद कर षोडशी से साठोत्तरी हो चुकी भउजियों के चिपके हुए गालों पर आज भी बिना गुलाल के ही लाली छा जाती है।
...दरअसल श्रीमती जी का मोबाइल चार-पांच दिन से कोमा में है। उनके लिए मोबाइल खरीदने की राय लेने को एक मित्र को फोन किया तो वह कई सारे मॉडल्स के बारे में बताने लगा। इसी क्रम में उसने कहा कि फलाने-फलाने मॉडल में बैटरी अलग से नहीं आती, बल्कि इनबिल्ट होती है। यह सुनकर मुझे भउजी शब्द में इनबिल्ट "जी" की सहसा ही याद हो आई...और फिर दिमाग के मेमोरी कार्ड से यादों की फाइलें के बाद एक दिल के सॉफ्टवेयर में डाउनलोड होती चली गईं।
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