पेड़ों की मौज, परिंदों की पिकनिक
कोरोना की वैश्विक महामारी के चलते आम जनजीवन में व्याप्त चहल-पहल को मानो ग्रहण लग गया है। कहते भी हैं- मन खुशी तऽ गाई गीत। यहां तो हर शख्स हर पल चिंता और चिंतन में डूबा है। आपसी बातचीत में सबसे पहला सवाल यही होता है- आपका शहर-गांव तो कोरोना के कहर से बचा हुआ है न? और फिर इसके बाद एक-दूसरे को जरूरी सलाह- घर में ही रहिएगा। अपना ध्यान रखिएगा।
जीवन से रौनक सिरे से गायब है। यदि किसी ने इसे बरकरार रखा भी है तो चेहरे पर लगे मास्क के कारण दिखता नहीं। वह तो भला हो सरकार बहादुर का कि शराब की बिक्री की अनुमति दे दी। इसकी वजह चाहे देश व राज्यों की डूबती अर्थव्यवस्था को सहारा देना हो या फिर सुरा प्रेमियों को गम गलत करने का सुअवसर प्रदान करना, मगर इस फैसले से करीब डेढ़ महीने के बाद मधुशालाओं पर गजब की रौनक देखने को मिली। सोमरस के प्रति लोगों में जैसी दीवानगी दिखी, वैसी ही दीवानगी यदि जीवन और जीवन मूल्यों के प्रति हो जाए तो कोरोना क्या, कोई भी परेशानी मानव और मानवता का बाल भी बांका नहीं कर सकेगी।
खैर, मेरा मकसद अभी इस मुद्दे पर उपदेश झाड़ना नहीं है। मैं तो कोरोना काल के इस दौर में प्रकृति की उन्मुक्त हंसी आपसे शेयर करने के लिए मुखातिब हुआ हूं। मीडिया में आए दिन खबरें आ रही हैं कि ऋषिकेश में गंगा का प्रवाह इतना निर्मल हो गया है कि तलहटी के पत्थर नजर आने लगे हैं। पश्चिम बंगाल के रायगंज से कंचनजंघा की शफ्फाक चोटियां दिखने लगी हैं। और भी दूसरी जगहों से ऐसे ही सुहाने मनभावन समाचार। हालांकि जंगल में मोर नाचा किसने देखा... इसका सच्चा आनंद तो तब है जब खुद वहां जाकर प्रकृति में आए इस सुखद बदलाव का नजारा किया जाए। लॉकडाउन के चलते फिलहाल यह तो संभव नहीं, मगर अपने आसपास भी इसे महसूस किया जा सकता है। लखनऊ में मेरे आवास के सामने पार्क और दफ्तर के रास्ते में सड़क किनारे से लेकर डिवाइडर तक पर लगे पेड़ों की रौनक देखते ही बनती है। वाहनों से निकलने वाली जहरीली गैस से अब उनका दम नहीं घुट रहा। पहियों से उड़ने वाली धूल की परत उनके पत्तों पर नहीं जम रही। ... और रही-सही कसर बीच-बीच में होने वाली बरसात पूरी कर देती है। बारिश के बाद पेड़ों की हरियाली में क्या कमाल का निखार आ जाता है और वे मानो गाने लगते हैं -आज ही हमने बदले हैं कपड़े,
आज ही हम नहाए हुए हैं।
फिल्म थ्री इडियट्स से कुछ पंक्तियां उधार लूं तो अहसास कुछ इस तरह होता है :
शाखों पर पत्ते गा रहे हैं
फूलों पर भंवरे गा रहे हैं
दीवानी किरणें गा रही हैं
दो पंछी गा रहे हैं
दो फूलों की बगियों में
हो रही है गुफ्तगू...
...और पेड़ जब इस तरह मोद मनाते हैं तो उन पर आश्रय पाने वाले परिंदों की खुशी भी छिपाए नहीं छिपती। वे भी पिकनिक मनाने के मूड में आ जाते हैं। तभी तो यहां मेरे आवास के सामने पार्क में भोर की कौन कहे, दिन में भी पंछियों की मीठी चहचहाहट वातावरण को गुंजायमान किए रहती है। कोयल की लंबी कूक बरबस ही बचपन के दिनों में लौटा ले जाती है जब हम आम के बगीचे में उसके सुर में सुर मिलाया करते थे। तब कोयल भी शायद हम बच्चों की भावना को समझ जाती थी और एक सच्चे तथा अच्छे प्रतियोगी की तरह लगातार हमारी बेसुरी " कू " का जवाब अपनी मीठी कूक से दिया करती थी।
चलते-चलते
किसान परिवार से होने के कारण आजकल की बेमौसम बारिश मुझे बिल्कुल भी नहीं भाती। रबी की फसलों को होने वाले नुकसान की आशंका से आंखें अनायास ही नम हो जाती हैं, मगर दुनियादारी की इस कड़वी हकीकत को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि एक के गम में दूसरे की खुशी छिपी होती है। प्रकृति के साथ मानव ने जो अन्याय, अनाचार-अत्याचार किया है, उसकी कीमत तो चुकानी पड़ेगी ही। आमीन।
( पक्षियों के चित्र इंटरनेट से साभार)
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