Tuesday, May 5, 2020

एक फरिश्ते की गुमनाम विदाई

एक फरिश्ते की गुमनाम विदाई

कभी कहीं पढ़ा था- सुख में जो साथ देते हैं, वे रिश्ते होते हैं और जो दुख में साथ देते हैं, वे फरिश्ते ...। ऐसे ही फरिश्ते थे हमारे मंझले मामू- सुरेश मामू। साधारण परिवार से ताल्लुक रखने की वजह से उनके पास किसी की मदद के लिए भरपूर संसाधन तो नहीं थे। इसके बावजूद वे संकट के क्षणों में हर किसी के साथ हमेशा असाधारण सहारा बनकर खड़े रहते थे। उनकी दी गई हिम्मत की बदौलत न जाने कितने ही लोगों ने अपनी डूबती हुई नैया को किनारे तक पहुंचाया।

बरसों पहले उनके मन में कैसी धुन सवार हुई कि उन्होंने खुद को अपने कुलदेवता की भक्ति में समर्पित कर दिया। खेती-किसानी के काम और माल-जाल की देखभाल के बाद जो भी समय बचता, वह अपने आराध्य के चरणों में समर्पित हो जाते। तड़के आंख खुलने के बाद से कुलदेवता की सेवा-टहल से लेकर रात को सोते समय भजनों से अपने आराध्य को रिझाने के साथ उनकी दिनचर्या पूरी होती थी। उनके स्वर का सान्निध्य पाकर वातावरण किस तरह दिव्य हो जाया करता था, उसे महसूस ही किया जा सकता था, उस दिव्यता को शब्दों में बयान करना नामुमकिन है। इससे मिली सिद्धि की बदौलत बहुतेरे लोगों का भला किया उन्होंने, लेकिन कभी लेशमात्र भी किसी लाभ-लोभ की कामना नहीं की। हमेशा खुद्दार बनकर रहे। यही वजह थी कि लोग उनके मुरीद हो जाते और ऐसे लोगों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती ही गई। 

उनके जीवन की गाड़ी यूं ही कभी सरपट तो कभी हिचकोले खाती हुई चल रही थी कि अचानक मामी जी को कैंसर ने धर दबोचा। यह बीमारी सामान्य परिवार का जिस तरह सत्यानाश करती है, इनका भी किया। काफी इलाज के बावजूद वे नहीं बच पाईं। करीब दो साल पहले उन्होंने देह छोड़ दी। उनके जाने के बाद से मामू की आंखों में एक सूनापन भर आया था। हालांकि लोगों से बातचीत में वे इसे जाहिर नहीं होने देते थे। बीतता हुआ समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, या फिर बाहर से देखकर लोग ऐसा महसूस करने लगते हैं। भले ही गम उपले की आग के बुझने के बावजूद उसकी राख में अंदर ही अंदर कहीं दहकती रहती है।  धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा था। पोते की सेना में नौकरी लग जाने से जीवन को जैसे खुशियों का एक संबल मिल गया था। 

...मगर ये खुशियां ज्यादा दिनों तक साथ नहीं निभा सकीं। पिछले साल मई में मामू की तबीयत कुछ नासाज हुई तो डॉक्टर को दिखाया गया। पता चला कि आहारनली का कैंसर चौथे स्टेज में पहुंच चुका है। मेरे लिए भी वह बड़ा ही प्रतिकूल समय था। लोकसभा चुनाव के कारण यहां लखनऊ में पत्रकारीय दायित्व और उधर जयपुर में बेटे का बीटेक का एग्जाम। माताजी जयपुर में थीं। उनके बिना मामू से मिलने के लिए जाने की सोच भी नहीं सकता था। एक-एक दिन भारी पड़ रहा था। बेटे का एग्जाम खत्म होते ही श्रीमती जी जयपुर से माताजी को लेकर लखनऊ पहुंचीं और फिर अगले दिन मैं माताजी के साथ पटना के लिए रवाना हुआ। मामू प्राइवेट अस्पताल में भर्ती थे। कीमोथेरेपी चल रही थी। नौकरी की अपनी मजबूरियां होती हैं। एकाध दिन रुककर मैं लौट आया।

गत दिसंबर में मौसेरे भाई की शादी में गया तो मां के साथ मामू से मिलने पहुंचा। वे पहचान में ही नहीं आ रहे थे। कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी ने सारे शरीर का सत्व जैसे निचोड़ लिया था, मगर गाढे वक्त में दूसरों को हिम्मत बंधाने वाले मामू ने तब भी जीवट का दामन नहीं छोड़ा था। बड़े ही उत्साह से मिले और मां व मुझसे जमकर बातचीत की। दवाएं चल रही थीं, लेकिन दुआओं  का ही सहारा था। फरवरी के अंतिम सप्ताह में भांजी की शादी में गया तो अत्यंत व्यस्त शिड्यूल के बावजूद मामू का आशीर्वाद लेने पहुंचा। देखकर खिल से गये। बातें भी कीं। हिम्मत इतनी कि मना करने के बावजूद उस हाल में भी सड़क तक आए। 

...मगर अफसोस... रविवार सुबह व्हाट्सएप देख रहा था कि ममहर वाले ग्रुप पर मनहूस खबर दिखाई दी। सुरेश मामू नहीं रहे। काल ने उन्हें हम सबसे छीन लिया। जानकर सन्न रह गया। वे वर्तमान से इतिहास हो गये। किंकर्तव्यविमूढ़ हूं और नियति के सामने विवश भी...। जिस शख्स की अंतिम यात्रा में अपने गांव के अलावा आस-पड़ोस के दस-बीस गांवों के उनके चाहने वाले शामिल होते, कोरोना की वैश्विक महामारी के चलते घोषित लॉकडाउन के कारण अपने परिवार के सभी सदस्य भी उन्हें अंतिम विदाई नहीं दे सके। इस फरिश्ते की यह गुमनाम विदाई आजीवन हमें सालती रहेगी। परमपिता परमेश्वर उन्हें अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें, यही प्रार्थना है। ॐ शान्ति...ॐ शान्ति...ॐ शान्ति।

07 अप्रैल 2020

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