क से कोरोना, क से किसान
सत्संग-प्रवचन सनातन काल से भारतीय परंपरा के अभिन्न अंग रहे हैं। गांव-कस्बों से लेकर शहरों-महानगरों तक में सत्संग-प्रवचन के आयोजन होते ही रहते हैं। वैसे तो भारतीय कथा पुराणों में भगवान के दस अवतारों का उल्लेख है, मगर इनमें प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण का स्थान सर्वोपरि है। मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम और प्रेम के प्रतिरूप श्रीकृष्ण जन-जन के मन में विराजते हैं। इन दोनों की लीलाएं ही संत-महात्माओं के प्रवचन के मुख्य विषय होते हैं। इन प्रवचनों में अक्सर ही सुनने को मिलता है कि आमजन के लिए अत्याचार के पर्याय बने रावण और कंस का अंत उनकी ही समान नामराशि के अवतारों क्रमशः राम और कृष्ण ने किया था।
मौजूदा माहौल में कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के कारण पूरी दुनिया खौफजदा है। हर आदमी दहशत में ...हर सांस सांसत में है। लॉकडाउन के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियों में पूंजीपतियों-उद्योगपतियों का असली चरित्र महज चंद ही दिनों में सामने आ गया है। नतीजतन उन पूंजीपतियों-उद्योगपतियों को अपना भाग्यविधाता समझ बैठे हजारों-हजार मजदूर भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर-अपने गांव के सफर पर निकल पड़े हैं। इस भरोसे के साथ कि अपनी जन्मभूमि पर उन्हें अवश्य ही ममतामयी छांव मिलेगी।
यह तो शाश्वत सत्य है कि मां अन्नपूर्णा ही अपने किसान पुत्रों के परिश्रम की बदौलत मनुष्य मात्र का पेट भरती हैं। तभी तो प्राचीन काल में "उत्तम खेती मध्यम बान, निर्घिन चाकरी भीख निदान" कहावत के जरिए समाज में खेती को सर्वोच्च सम्मान दिया गया था। इंद्रदेव की बेरुखी और सूरज का कोप चाहे उनकी फसलें सुखा दे या फिर बाढ़ उनकी कटने के लिए तैयार फसलों को बहा ले जाए, जीवट के धनी किसान थोड़े ही दिनों बाद परेशानियों की धूल को झाड़कर फिर से परिश्रम के पथ पर बढ़ चलते हैं। मेहनत के पसीने से जब खेत की मिट्टी गीली होती है तो किसानों के आंगन में खुशियों की अठखेलियां शुरू हो जाती हैं। आसमान में बैठकर धरती वासियों का भाग्य लिखने वाले विधाता को धता बताते हुए धरतीपुत्र अपना भाग्य खुद लिखते हैं।
आज जब कोरोना वायरस रूपी शत्रु ने सारी दुनिया को अपने जानलेवा भुजपाशों में जकड़ रखा है, ऐसे में चिकित्सा विशेषज्ञ और जीव वैज्ञानिक न जाने कब तक इसके खात्मे के लिए वैक्सीन और दवा का आविष्कार करें, किसान ही कोरोना से उपजी दुश्वारियों के दंश का खात्मा कर सकते हैं। लोगों का पेट भरने के साथ ही मौजूदा विषम परिस्थितियों की वजह से अपनी आजीविका का साधन खो देने वाले लाखों मजदूरों को खेती-किसानी के काम में रोजगार मुहैया कराया जा सकता है।
इसके लिए सरकारों को कुछ विशेष व्यवस्थाएं करनी होंगी। किसानों को पर्याप्त आर्थिक मदद के साथ ही अन्य रियायतें और कुछ विशेष अधिकार भी देने होंगे। मसलन किसानों को लागत के हिसाब से अपनी उपज का मूल्य तय करने का अधिकार मिले। जब फैक्टरियों में बनने वाले सामानों की कीमत उत्पादक कंपनियां तय करती हैं तो फिर किसानों की मेहनत से उपजाए गए अनाजों के समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार क्यों करे। किसान अनाज लेकर मंडियों में क्यों रात-रात भर जगें। कंपनियां उनके दरवाजे पर आकर क्यों न अनाज खरीदें। जब गन्ना किसानों को मजदूरों को उनका मेहनताना और खाद-कीटनाशकों का नकद भुगतान करना पड़ता है तो फिर चीनी मिलों को उधार में गन्ना खरीदने की छूट क्यों मिले। बकाया गन्ना मूल्य भुगतान के लिए किसान वर्षों तक क्यों इंतजार करें।
ऐसी और भी कई सारी विसंगतियां हैं, जिन्हें दूर करके खेती को फायदे का सौदा तथा किसानों को खुशहाल बनाने के साथ ही लाखों-लाख लोगों को पलायन की पीड़ा से मुक्त कराते हुए उन्हें अपने घर के पास ही रोजगार मुहैया कराया जा सकता है।
...और धूमिल के सवाल पर टूटेगा मौन
जब ये सारे कदम पूरी ईमानदारी के साथ उठाए जाएंगे तो हालात जरूर बदलेंगे। ...और क्रांतिधर्मी कवि सुदामा पांडेय को भी उनके सवाल का जवाब मिल जाएगा, जो शासन-व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को देखते हुए करीब पचास साल पहले उन्होंने अपनी कविता " रोटी और संसद" में उठाया था :
रोटी और संसद
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है,
न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं-
वह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है।
( तस्वीरें इंटरनेट से साभार)
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