गांव का क्राइसिस मैनेजमेंट
बुरा समय कभी मुनादी करके नहीं आता। इससे लड़ने की तैयारी को अपने दैनंदिन जीवन का हिस्सा बनाना पड़ता है। शहरों में जीवन अपेक्षाकृत ज्यादा आसान है, सुविधाओं से लेकर सरकारी सहायता तक की सुविधा आसानी से हासिल हो जाती है। वहीं गांवों में खुद कुआं खोदकर प्यास बुझाने वाले हालात होते हैं। ऐसे में जरूरी संसाधनों से वंचित ग्रामीणों का सबसे बड़ा संबल उनकी हिम्मत ही हुआ करती है। वहां जीवट ही जीवन का पर्यायवाची बन जाता है। अपने हिसाब से वे ऐसी ईजाद कर लिया करते हैं जो संकट के समय में उनके सहायक बन जाते हैं।
आजकल लॉकडाउन शब्द सबसे अधिक चर्चा में है। कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से बचाव के लिए इसे ब्रह्मास्त्र बताया जा रहा है और हर समझदार व्यक्ति पूरी शिद्दत से इसका पालन कर रहा है। वैसे अतीत में झांकें तो सबसे पहले द्वापर युग में लॉकडाउन के हालात ब्रजभूमि में तब पैदा होते हैं जब गोपाल श्रीकृष्ण की नव युगीन नीतियों से खफा होकर कई दिनों तक लगातार बारिश करवाने लगते हैं। मान्यताओं के अनुसार कृष्ण अपनी कानी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लेते हैं, और उसके नीचे सभी व्रजवासी शरण लेते हैं। " संघे शक्ति " के इस अलौकिक प्रयोग के सामने इंद्र का कोप पानी भरने को विवश हो जाता है।
खैर, द्वापर युग तो बहुत दूर की बात है, लेकिन बचपन में सावन-भादो के महीनों में कई बार लगातार बारिश की वजह से गांव में अघोषित लॉकडाउन की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। हथिया, पूरबा, कनहा नक्षत्र में ज्यादा बारिश कराने की होड़ सी लग जाती थी। घर से बाहर निकल पाना मुश्किल हो जाता था। मगर ऐसे विपरीत हालात में भी चहुं ओर व्याप्त पानी से पेट की आग नहीं बुझ पाती थी। हालांकि तब आटा घरों में ही पिस जाता था और धान की फसल तैयार होने के बाद चावल कूटकर रख लिया जाता था। सो आटा-चावल की चिंता नहीं हुआ करती थी, लेकिन केवल रोटी-भात खाना भी तो आसान नहीं...सो सब्जी की समस्या हो जाती थी। जलभराव के कारण खेतों में लगी हरी सब्जियां गल जाती थीं और लगातार बारिश के कारण हाट न लगने की वजह से बाहर से सब्जी लाना मुश्किल होता था।
ऐसे में कुछ चीजें रेडिमेड सब्जी का काम किया करती थीं। इनमें सबसे ज्यादा काम आती थी तीसी , जिसे शहरों की सभ्य भाषा में अलसी कहा जाता है और नए जमाने के विशेषज्ञ चिकित्सक स्वास्थ्य के लिए गुणों की खान बताते हैं। इसी अलसी को भूनकर ओखल में कूट लिया जाता और इसमें नमक मिलाकर हमलोग रोटी और चावल दोनों ही भरपेट खा लिया करते थे। इसके बाद नंबर आता था आम के टिकोरे से बनी खटाई का। आंधी में गिरे टिकोरे हम बच्चे जब झोला भर-भर कर लाते तो उसे छीलने के बाद गुठली निकाल कर काट दिया जाता और हल्दी-नमक लपेटकर कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता। बारिश के मौसम में तथाकथित लॉकडाउन में उसे सिलबट्टे पर पीस लिया जाता और यह सब्जी का सब्सिटीच्यूट बन जाता। इसके अलावा सीजन में सुखाकर रखी गई गोभी, मूली, बैंगन भी अपनी-अपनी मात्रा के हिसाब से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। ...और इस तरह विषम परिस्थितियों में भी बिना किसी सरकारी-गैरसरकारी इमदाद के सबका काम चल जाता था।
मौजूदा माहौल में लॉकडाउन से उपजे हालात के बीच कल हैदराबाद में रह रहे ममेरे भाई ने जब सरसों तेल और नमक के साथ चावल खाने की चर्चा की तो सहज ही मुंह में पानी भर आया।...और बचपन के दिन याद आ गये जब बड़ी ही सहजता से हर मुश्किल को आसान बना लिया जाता था।
03 अप्रैल 2020
No comments:
Post a Comment