अपशकुन का रुदन नहीं...भूख की चीख
पूस-माघ का महीना था। सर्दी चरम पर थी। घने कोहरे को चीरती हुई बाइक ने आठ-दस किलोमीटर की स्पीड से मुझे आखिरकार कमरे पर सकुशल पहुंचा दिया था।
लखनऊ में मैं जहां रहता हूं, उस मकान के सामने बहुत ही अच्छा और खुशनसीब पार्क है। खुशनसीब इस मायने में कि जब यह कॉलोनी बसाई जा रही थी, इस पार्क के गिर्द रहने वालों ने सरकार पर निर्भर होने के बजाय खुद ही इसके चारों ओर अपनी-अपनी पसंद के कई सारे पौधे लगाए और अपने बच्चों की मानिंद उनकी देखभाल की। नतीजतन वे पौधे आज अच्छे-खासे दरख़्त में तब्दील होकर परिंदों के बसेरे बन गये हैं।
उस रात इन्हीं दरख्तों पर रहने वाले परिंदे न जाने क्यों बुरी तरह बोल रहे थे। यह उनकी चहचहाहट तो बिल्कुल नहीं थी, जो अपनी मिठास से बरबस ही मन मोह लेती है। ये परिंदे तो चीख रहे थे जिससे करुण क्रंदन का आभास हो रहा था। उनकी पीड़ा समझ पाने के बावजूद मैं उनकी परेशानी दूर न कर पाने को विवश था। इसी उधेड़बुन में न जाने कब नींद आ गई। सुबह जगा तो अपने बुजुर्ग मकान मालिक से रात वाला किस्सा बयां किया। उन्होंने बताया कि इन परिंदों को खाने के लिए कुछ नहीं मिला होगा। पेट खाली होने पर सर्दी ज्यादा सताती है। आज से मैं पार्क में वॉकिंग ट्रैक पर चावल के टुकड़े बिखेर दिया करूंगा। वाकई उसके बाद फिर कभी चिड़ियों की वैसी चीख सुनाई नहीं पड़ी।
कल देर रात दफ्तर से लौटा तो रास्ते में एक जगह कई सारे कुत्ते रो रहे थे। एकबारगी तो मेरे मन में भी किसी अपशकुन की आशंका गहराने लगी, क्योंकि बचपन से ही हमें ऐसी सीख दी गई है। हालांकि कमरे पर आने के बाद भी कुत्तों का करुण क्रंदन कानों में गूंजता रहा। सोने की कोशिश नाकाम हो गई। मन में तरह-तरह के ख्याल उभरने लगे। अचानक ही पूस-माघ वाली सर्द रात में परिंदों की चीख वाली बात याद आ गई।
दिल के किसी कोने से आवाज आई- आज जब कोरोना की वैश्विक महामारी की वजह से लॉकडाउन के चलते लोग अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं। चाय-कॉफी की थड़ी से लेकर रेस्तरां-होटल तक सभी बंद हैं, इन बेजुबानों को रोटी-बिस्कुट का एक टुकड़ा तक मिलना मुहाल है। ऐसे में यह भी तो हो सकता है कि भूख से बेबस होकर ये बिलख रहे हों। ऐसे में मेरा निवेदन है कि आज के इस विषम हालात में हम सभी अपने आस-पड़ोस में रहने वाले आवारा कुत्तों को एकाध रोटी जरूर दे दिया करें।
15 अप्रैल 2020
# Covid 19 # Lockdown
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