असीम संभावनाओं से भरे संत का असमय अंत
करीब ढाई दशक पहले की बात है। नई जगह, अनजान डगर। फिर बस के सफर में आदमी पूरी तरह बेबस हो जाता है। किताबों में ही राजस्थान का नाम सुना था। भरसक कोशिश थी कि दिन रहते पहुंच जाऊं, लेकिन लोकल बस का हाल ऐसा कि जरा-सी स्पीड पकड़ते ही रोकने के लिए कोई पैसेंजर आवाज लगा देता। टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर बस चली जा रही थी। शाम के धुंधलके में चार मंजिला मंदिर थोड़ी दूर से नजर आने के बाद जान में जान आई। खड़ी सीढ़ियां चढ़ते हुए सांस फूल गई। वहां जाकर पता चला महंतजी ध्यान में बैठे हैं।
महज 17-18 साल की उम्र। चेहरे पर अद्भुत अद्वितीय तेज। बैठे हुए होने के बावजूद करीब छह फीट की लंबाई अलग ही अहसास करा रही थी। दंडवत प्रणाम करके सामने बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी साधना पूरी हुई और वे मुझसे मुखातिब हुए। होठों पर स्मित मुस्कान के साथ मधुर धीमी आवाज में ऐसा जादू कि सीढ़ियां चढ़ने की सारी थकान तत्काल ही काफूर हो गई। एक दिन रुकने के बाद चलने लगा तो बोले, छुट्टी हो तो चले आया कीजिए। मंदिर परिसर का वातावरण इतना पवित्र और आनंददायक था कि एक निश्चित अंतराल के बाद वहां आना-जाना लगा रहा। उनका सान्निध्य मन में सहज ही आश्वस्ति का भाव जगाता था।
निम्बार्क संप्रदाय के तहत संन्यास की दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें नाम मिला था - रसिक बिहारी शरण दास। ...और फिर जयपुर-रामगढ़-आंधी मार्ग पर स्थित अस्थल (थौलाई) के श्री गोपालजी के मंदिर के महंत के रूप में वे मंदिर के जीर्णोद्धार-उन्नयन के साथ ही खुद को भी साधना-मार्ग का सच्चा पथिक बनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहे। धर्मग्रंथों के सम्यक अनुशीलन के लिए संस्कृत में निष्णात होने के लिए कभी पाणिनि के सूत्रों का अवगाहन तो कभी श्री राधाकृष्ण को भक्ति भाव से रिझाने की ललक के साथ संगीत की शिक्षा के लिए सरगम के धुनों में खुद को समर्पित कर देना। नामजप तो दिनचर्या का हिस्सा ही था। श्री गोपाल सहस्त्रनाम के कितने पारायण उन्होंने किए होंगे, इसकी गिनती मुश्किल है।
बीतते हुए समय के साथ मेरी भी व्यस्तताएं बढ़ती गईं और इसके फलस्वरूप धीरे-धीरे अस्थल जाने का अंतराल बढ़ता चला गया। लखनऊ आने के बाद रही-सही कसर भी खत्म-सी हो गई। इसके बावजूद मेेरे प्रति उनका स्नेह भाव कभी कम नहीं हुआ। मोबाइल की सुविधा होने के बाद यदा-कदा बात हो जाया करती थी। लंबे अंतराल के बाद दो साल पहले अन्नकूट पर परिवार के साथ अस्थल मंदिर जाने का सुअवसर मिला था। देखकर जैसे खिल गए। बोले-कम से कम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, नंदोत्सव, अन्नकूट पर तो आ ही जाया कीजिए। ...मगर मेरी मजबूरियां...खैर...।
डेढ़-दो महीने बाद पिछले गुरुवार 20 फरवरी को फोन किया तो राधे-राधे कहते ही पूछ बैठे- आ रहे हैं क्या? जब मैंने लखनऊ होने की बात कही तो बोले, अगली बार कब जयपुर आएंगे? मैंने होली पर आने की बात कही तो बोले, इस बार जरूर मिलेंगे। आपको फुरसत नहीं होगी तो मैं ही जयपुर आ जाऊंगा।
मगर अफसोस... दो दिन बाद ही 22 फरवरी को पता चला कि काल के क्रूर हाथों ने उन्हें सदा-सदा के लिए हमसे छीन लिया। आठ दिन हो गए, लेकिन दिल अब भी मानने को तैयार नहीं है कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके अवसान के साथ ही असीम संभावनाओं से भरे एक महान संत का असमय अंत हो गया। जिन्होंने अपना जीवन ईश्वर की सेवा में समर्पित कर रखा था, उनके लिए मैं ईश्वर से क्या प्रार्थना करूं। ऊं शांति... शांति... शांति
01 मार्च 2020
No comments:
Post a Comment