Tuesday, May 12, 2020

एकदा नैमिषारण्ये...

एकदा नैमिषारण्ये....

सच बोलने को हम भले ही अपने आचरण में नहीं उतार पाए, लेकिन सत्य को ईश्वर का प्रतिरूप बनाकर उसे सत्यनारायण भगवान का रूप अवश्य दे  दिया। फलस्वरूप सत्यनारायण व्रत-कथा-पूजा हमारे सामाजिक चरित्र का हिस्सा बन गई। हमारे टोले में भी आए दिन कहीं न कहीं सत्यनारायण भगवान की पूजा होती और उसका हंकार (इसमें शामिल होने की सूचना)  मिलने पर वहां जाना पड़ता था। कहीं भी सत्यनारायण भगवान की पूजा की जानकारी मिलने के बाद दादीजी उस दिन उपवास रख लेती थीं, जिसका पारायण वे सत्यनारायण भगवान की पूजा के प्रसाद से ही किया करती थीं। ऐसे में हमारे परिवार के किसी सदस्य का पूजा में जाना और भी जरूरी हो जाता था। हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर जाने के पहले कई बार ऐसी पूजा में शामिल होने का सुयोग मुझे भी मिला। 

वहां जाता तो कई बार पूजा शुरू हो चुकी होती थी तो कई बार शुरू करने की तैयारी चल रही होती। इसके तहत विभिन्न देवी-देवताओं का आवाहन और पंचोपचार पूजन का क्रम चलता, जो पंडितजी और यजमान के बीच अस्फुट वार्तालाप सरीखा होता। बचपन के दिनों में यह सब कुछ उसी तरह ऊबाऊ लगता, जैसे गायकों की मंडली का प्रस्तुति से पहले वाद्य यंत्रों पर धुन मिलाने से संगीत के अधकचरे  कद्रदानों को लगता है। 

...खैर, देवताओं के आवाहन-पूजन के बाद पंडितजी गला साफ करके बुलंद आवाज में कथावाचन शुरू करते ताकि उपस्थित जनसमुदाय का ध्यान कथा की ओर हो सके- " एकदा नैमिषारण्ये..."ये दो शब्द बालमन में स्मृतिपटल में जो अंकित हुए, वे आज भी अमिट हैं। कच्ची उम्र में संस्कृत की समझ तो नहीं थी, लेकिन गिनती जरूर आती थी। कथावाचन करते हुए पंडितजी हर अध्याय के बाद उसकी संख्या के हिसाब से शंख बजाते। पहले अध्याय के बाद एक बार, दूसरे के बाद दो बार और यह क्रम पांचवें अध्याय के बाद पांच बार शंख बजाने के साथ पूरा होता और हमें लग जाता कि कथा की पूर्णाहुति हो गई। फिर सत्यनारायण प्रभु की आरती उतारने के बाद हजाम (नाई) वहां उपस्थित लोगों के सामने आरती की थाली ले जाता और लोग अपनी हथेलियों से आरती की ज्योति को अपने आनन को छुआकर खुद को धन्य महसूस करते। कुछ लोग आरती की थाली में पांच पैसा, दस पैसा भी डाल देते। उस जमाने में पांच-दस पैसे की भी काफी वैल्यू हुआ करती थी। कई बार आरती की थाली में एक रुपये का सिक्का भी दिख जाता, लेकिन उसे डालने वाले की स्थिति भी दस पैसे से अधिक डालने की नहीं होती थी और वह बाकी के नब्बे पैसे बिना किसी संकोच के आरती की थाली से उठा लेता था। 

..और फिर शुरू होता छठा अध्याय

लोगों के बीच आरती की थाली घुमाने के बाद हजाम उसे पंडितजी के सामने लाकर रख देता। पंडितजी थाली में रखे पैसे गिनते और हजाम के साथ उसका बंटवारा करते। तब सोलह आने का रुपया ही अधिक प्रचलित था, सो पंडितजी कुल पैसों में से दस आने का शेयर खुद रखकर छह आना हजाम को देते। आज के  हिसाब से कहें तो सिक्सटी-फोर्टी। बस इसी बात को लेकर हजाम बिफर जाता। वह पंडितजी के सामने तर्क देने लगता कि आप तो बस शाम में आए और कथा बांच दी, लेकिन मैंने तो सुबह से ही पैदल चलकर लोगों को हंकार दिया है। हवन के लिए समिधा, नवग्रह की लकड़ी समेत सारी पूजन सामग्री जुटाई। इस तरह आधा पंडित मैं भी हूं और मुझे आठ आना हिस्सा चाहिए। काफी देर की तकरार के बाद किसी एक पक्ष के झुकने के साथ ही इस विवाद का अंत होता। 

हर आम-ओ-खास आज बन गया है नाई

उस जमाने में लोगों की दाढ़ी बनाने से लेकर बाल काटने तक का काम नाई के जिम्मे ही हुआ करता था। वह सप्ताह में एक बार आता और लोगों की दाढ़ी बनाने के साथ ही जरूरी होने पर बाल भी काट दिया करता था।   मगर पिछले बीस-पचीस वर्षों में काफी कुछ बदल गया है। अब तो शहरों की कौन कहे, गांवों में भी अधिकांश लोग शेविंग किट रखने लगे हैं और खुद ही दाढ़ी बनाकर नाई का आधा काम कर लेते हैं। बची-खुची कसर कोरोना वायरस की इस वैश्विक महामारी के कारण करीब डेढ़ महीने से चल रहे लॉकडाउन ने पूरी कर दी है। आज आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक कोई खुद अपने बाल काट रहा है तो कोई अपनों की मदद से इस काम को अंजाम दे रहा है। नाई के पास एक ही तौलिए के बार-बार इस्तेमाल के कारण कोरोना के संक्रमण की चिंता की वजह से लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी लोग सैलून में बाल कटाने से पहले सौ बार सोचेंगे। कई मित्रों ने तो ऑनलाइन ट्रिमर खरीदने का ऑर्डर भी दे दिया है। 

चलते-चलते
उन दिनों जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और कर्पूरी ठाकुर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष। एक और कद्दावर नेता हुआ करते थे गुलाम सरवर, जो बाद में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष भी बने। एक बार गुलाम सरवर ने चुनावी सभा में जगन्नाथ मिश्र और कर्पूरी ठाकुर दोनों को ही लपेटते हुए कहा था-एक पंडित और एक नाई ने पूरे बिहार को तबाह कर रखा है। लोगों को दिखाने के लिए ये दोनों दिन के उजाले में लड़ते हैं और रात के अंधेरे में दस आना-छह आना का बंटवारा करते हैं। कोरोना काल में आम आदमी के नाई की भूमिका भी निभाने को लेकर बचपन में सत्यनारायण पूजा की कथा के दौरान पंडितजी और नाई में दस आना-छह आना के बंटवारे के साथ ही एक बुजुर्ग से सुना हुआ यह प्रसंग भी याद आ गया तो सोचा आपलोगों से भी शेयर करूं।

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