बड़की भौजी जिंदाबाद
जब भी किसी को बांसुरी पर तान छेड़ते हुए सुनता हूं तो मन में भावना उठती है कि जब यह कलाकार इतनी मधुर धुन सुना रहा है तो सोलह कलाओं से परिपूर्ण वह मुरलीधर कृष्ण कितनी मधुर बांसुरी बजाता रहा होगा। एक सोच उभरती है कि काश ! हमारा जन्म द्वापर युग में हुआ होता तो हमें भी वंशीधर की बांसुरी की तान सुनने का सुख मिला होता...!
खैर, जन्म पर तो अपना वश नहीं, लेकिन मैं इस बात के लिए खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि मैंने भले ही वंशीधर कृष्ण का बांसुरी वादन नहीं सुना, लेकिन गोविंदजी Govind Dutta Kumar का गायन सुना है। जी हां, हमारे गांव की विभूति स्वनामधन्य श्री गोविंदजी हारमोनियम बजाते हुए जब अपने मधुर स्वर में गीतों की प्रस्तुति देते तो सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो उठते थे। हालांकि उनकी यह संगीत साधना बिल्कुल ही स्वान्त: सुखाय थी या फिर अपने इष्ट से एकाकार होने का साधन।
...मगर ईश्वर की असीम कृपा से जब कोई किसी कला को साध लेता है तो वह भले ही इसे सबकी नजरों से कितना भी बचाकर रखना चाहे, जमाने को खबर हो ही जाती है। और फिर गांव का जीवन, जहां आने वाला हर पल कभी बारिश, कभी सुखाड़ तो कभी ओलावृष्टि के रूप में वहां रहने वालों की कठिन परीक्षा लेने के लिए तैयार बैठा रहता है। वह तो ग्रामीणों की मेहनत से टपकते पसीने से उपजा जीवट उन्हें हर मुश्किल हालात से उबारकर एक नई शुरुआत के लिए तैयार कर देता है। " हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया" उनकी नियति बन जाती है और इसे हवा देने का काम करता है हर मुश्किल हालात में हंसी-मजाक खोज लेने का उनका जज्बा तथा जरूरी संसाधन न होने के बावजूद मनोरंजन पैदा करने का हुनर।
इसी का परिणाम है कि गांवों में दुर्गा पूजा, दिवाली जैसे विशिष्ट अवसरों पर नाटकों का मंचन वहां के जनजीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है। नाटक के लगातार दृश्यों की एकरसता से दर्शकों को बोरियत न हो, इसके लिए बीच-बीच में गीत-संगीत का तड़का लगाना जरूरी हो जाता है। इसके लिए ऐसे किसी कलाकार को बुलाया जाता जो " कान्हा रे तू राधा बन जा" को आत्मसात करते हुए पुरुष होने के बावजूद स्त्री वेश में नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करता। कई बार अर्थाभाव या अन्य कारणों से ऐसे कलाकार को बुलाना संभव नहीं हो पाता तो आस-पड़ोस के ही किसी सुदर्शन लड़के को आयोजन समिति की प्रतिष्ठा का हवाला देकर नाचने-गाने के लिए तैयार किया जाता। चूंकि ऐसा लड़का कोई प्रोफेशनल तो होता नहीं कि उसके साथ हारमोनियम- ढोलक-तबले वाले भी हों, तो ऐसे में संकटमोचक के रूप में हारमोनियम समेत अवतरित होते श्री गोविंद जी।
उनकी सधी हुईं अंगुलियां जब हारमोनियम पर अटखेलियां करतीं तो संगीत की ऐसी सरिता प्रवाहित होने लगती कि दर्शक वाह-वाह कर उठते। कई बार विशेष मनुहार पर जब हारमोनियम बजाने के साथ ही श्री गोविंद जी अपने मधुर स्वर में गीतों की भी प्रस्तुति देते तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। स्कूल के दिनों में ऐसे ही , दुर्गा पूजा के मेले में आयोजित नाटक के दौरान एक बार उनका गाया " बड़का भैया इन्कलाब, बड़की भौजी जिंदाबाद" सुना था, जिसकी मधुर यादें आज भी स्मृति पटल पर उसी रूप में अंकित हैं।
आज जब कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते घोषित लॉकडाउन में हर आदमी अपने ही घरों में कैद होकर रह गया है। इससे होने वाली ऊब मिटाने के लिए या फिर समय बिताने के लिए लोग तरह तरह के जतन कर रहे हैं। ऐसे ही एक मित्र की फेसबुक वॉल पर उसके गायन का वीडियो क्लिप देखकर सहसा ही आदरणीय श्री गोविंद जी के गायन की याद आ गई। संभव है लॉकडाउन के इन क्षणों में श्री गोविंद जी भी संगीत की टेर छेड़ते हों, मगर उन्हें सुन पाने का सौभाग्य हर किसी के पास कहां....
26 अप्रैल 2020
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