कान का अहसान
बच्चा जब जन्म लेता है तो मां से उसका सबसे पहला संवाद शब्दों के जरिए ही होता है। कानों से होकर मां की मधुर वाणी उसके हृदय में उतरती चली जाती है और यह संबंध जन्म-जन्मांतर के लिए एक अदृश्य डोर में बंध जाता है। मां की लोरियां सुनकर वह सोता है और ताली की मधुर आवाज से उसकी नींद खुलती है।
... और बच्चा जब धीरे-धीरे होश संभालता है तो " मामा- बाबा-दादा-नाना" जैसे छोटे-छोटे शब्दों को मां से सुनकर अपने हृदय में उतारने के बाद जब उन्हें अपनी तोतली बोली में दुहराता है तो इस अलौकिक सुख का वर्णन करना बड़े-बड़े मनीषियों के लिए भी नामुमकिन हो जाता है।
कुछ और बड़ा होने पर बच्चा जब शिक्षा प्राप्ति के लिए पाठशाला का रुख करता है तो वहां भी नर्सरी राइम्स सुनकर नये-नये शब्दों को सीखने में कानों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह सिलसिला समय बीतने के साथ-साथ आगे बढ़ता जाता है। फिर गोष्ठियों-सत्संगों से ज्ञान की गंगा श्रवणेन्द्रियों के रास्ते ही अंतर्मन में उतरती हैं।
प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है- यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है। यह बात मानवीय सद्भावनाओं में भी लागू होती है। उम्र बीतने के साथ जब आंखों की रोशनी कम होने लगती है। फिर न चाहते हुए भी चश्मा लगाना जरूरी हो जाता है। ऐसे में चश्मे की कमानी को संभालने की जिम्मेदारी ये कान ही निभाते हैं।
आज जब कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के इस दौर में पूरी मानवता ही संकट में आ गई है। सरकारों ने मास्क लगाना अनिवार्य कर दिया है। यहां तक कि मास्क न लगाने पर भारी-भरकम जुर्माना और जेल तक का प्रावधान कर दिया है। ऐसे में मास्क की डोरी को टिकाए रखने की जिम्मेदारी भी कान ही निभा रहे हैं। इसलिए हम सभी को कान का अहसान मानना ही चाहिए।
22 अप्रैल 2020
#Covid 19
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