Tuesday, May 5, 2020

अथ श्री पेड़ा पुराण

अथ श्री पेड़ा पुराण

कबिरा जब हम पैदा हुए...तब मिठाइयों की कल्पना शादी-विवाह, उपनयन-द्विरागमन के अवसर पर ही हो पाती थी। समाज भी तब इतना अधिक समृद्ध नहीं था। सो अतिथि अपनी चरणों की धूलि को ही मेजबान के लिए सबसे बड़ी भेंट मानते थे। इक्का-दुक्का कोई अतिथि थोड़ी मेहरबानी भी करता तो ब्रिटानिया कंपनी की मिल्क बिकिज बिस्किट ले आता जो तब शायद दो रुपये का मिलता था। दो-एक साल में कभी हम बच्चों की किस्मत ज्यादा जोर मारती तो कोई मेहमान नाइस बिस्किट का डिब्बा लेकर आता। उस बिस्किट पर लगे चीनी के दाने की मिठास आज की क्रीम वाली बिस्किट में कहां। एक बुजुर्ग जब आते तो अपनी जेब में रखी मिश्री की डली निकालते और टुकड़े करके हमें देते। मगर हमारे दिल के टुकड़े तो उनके आगमन मात्र से ही हो जाया करते थे।

...मगर मांएं तो अपने बच्चों का मन पढ़ लिया करती हैं। सो बिना किसी विशेष अवसर के बच्चों का मुंह मीठा कराने के लिए जतन करने से कैसे बाज आ जातीं। ऐसे में देवताओं की शरण में जाने के अलावा उनके पास दूसरा कोई उपाय नहीं होता। वे कुलदेवी-कुलदेवता, ग्राम देवता या मंदिर में स्थापित देवताओं से मनौती मान देतीं। तब आसपास की दुकानों में मनौती पूरी करने के लिए देवताओं को चढ़ाने के लिए मिठाई के नाम पर बताशे और पेड़े के अलावा कुछ मिलता भी नहीं था। खालिश चीनी से बने बताशे की बिसात ही क्या...मगर पेड़े का स्वाद बचपन में ही जुबान पर बखूबी चढ़ गया। 

जहां तक याद कर पाता हूं, मेरे बचपन के दिनों हमारे घर के पास बड़े ही वृहद स्तर पर गायत्री महायज्ञ का आयोजन हुआ था। उसके मुख्य कर्ता-धर्ता मौनी बाबा के पास जब हम जाते तो पीतल के डब्बे से निकाल कर जो पेड़ा देते, आज तक फिर कभी वैसा स्वाद नहीं मिला। बाबाधाम (देवघर) से आने वाले श्रद्धालुओं के हाथों प्रसाद स्वरूप मिलने वाले पेड़े का स्वाद भी आज तक भूल नहीं पाया हूं। रक्षाबंधन पर दीदी के यहां जाता तो राखी बांधने के बाद वह अपने हाथों से बनाया हुआ जो पेड़ा खिलाती थीं, उसका भी कोई जवाब नहीं। 

हमारे गांव के चूल्हा बाबा-नूजा बाबा के पेड़ों का जलवा भी कुछ कम नहीं था। उनके अवसान के साथ ही वह स्वाद भी इतिहास होकर रह गया। उमाशंकर भाई ने काफी हद तक उनकी परंपरा को निभाने की कोशिश की, मगर वैसी कामयाबी हासिल नहीं कर सके। पड़ोसी गांव बरडीहा और महेयां के एकाध दुकानदार ने भी अपनी विशिष्ट पहचान बनानी चाही, मगर अधिक दिनों तक इसे बरकरार नहीं रख सके। कभी हाजीपुर के पास स्थित दिग्घी के पेड़े ने ललचाया तो कभी मुजफ्फरपुर के पेड़े ने बहलाया, मगर दर-दर भटकने वाले मुझ खानाबदोश की बराबर इनका लुत्फ उठाने की किस्मत कहां। 

अभी होली के बाद जयपुर से लौटने पर एक मित्र ने पेड़े खिलाए तो काफी दिनों बाद मिले इस विशिष्ट स्वाद ने पुरानी यादें ताजा कर दीं । ... और पेड़ा पुराण लेकर आपके सामने हाजिर हो गया।

14 मार्च 2020

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