Wednesday, May 27, 2020

गुरु ही नहीं, नृत्यगुरु भी...

गुरु ही नहीं, नृत्यगुरु भी...

किस्मत के खेल निराले मेरे भैया...। नियति ने किसके लिए क्या लिख रखा है, कौन समझ पाया है। जन्मभूमि से लेकर कर्मभूमि तक प्रारब्ध के अनुसार ही तय होता है। आज से करीब पांच दशक पहले बिहार के वैशाली जिले के सुदूर पश्चिमी सीमावर्ती गांव से एक मास्टर साहब की नियुक्ति वैशाली जिले के करीब-करीब पूर्वी सीमा पर स्थित हमारे गांव के बीच वाले टोले के प्राथमिक स्कूल में हुई थी।

भारत ही नहीं, विश्व के पटल पर अपना विशिष्ट स्थान रखने वाली ऐतिहासिक वैशाली नगरी को इतिहासकार भले ही लोकतंत्र की जननी और वैभवशाली कहते हुए नहीं अघाते हों, लेकिन आधुनिक सत्तानशीनों ने इसकी उपेक्षा में कोई कोर कसर नहीं रखी। तभी तो आज भी बिहार के अन्य शहरों-कस्बों से वैशाली का सफर आसान नहीं है। वह तो भला हो जापान, श्रीलंका जैसे बौद्ध धर्मावलंबी देशों का, जहां की सरकारों ने पटना और मुजफ्फरपुर से वैशाली तक ढंग की सड़कें बनवा दीं। नीतीश कुमार ने रेल मंत्री रहते हुए वैशाली को रेलमार्ग से जोड़ने की घोषणा की थी, जिस पर अब अमल हो पाया है। हालांकि अब भी उस इलाके में रहने वाले हजारों लोगों को हाजीपुर-मुजफ्फरपुर रूट की ट्रेनों को वैशाली होकर चलाए जाने का आज भी इंतजार भी है।

तब मास्टर साहब के लिए हफ्ते-पंद्रह दिन में अपने गांव जाना कितना दुरूह रहा होगा, इसकी कल्पना भी कठिन है। खासी दूरी और अच्छी सड़क की कमी साइकिल से जाने की इजाजत भी नहीं देती रही होगी। ...और उस समय की तनख्वाह में एक शिक्षक के लिए मोटरसाइकिल खरीदना तो दूर, उसके बारे में सोचना भी संभव नहीं था। सो कुछ महीनों के बाद मास्टर साहब अपने परिवार को भी लेकर आ गए और हमारे गांव को ही अपना बसेरा बना लिया। उनका परिवार यहां के लोगों के साथ ऐसे घुल-मिल गया जैसे दूध में चीनी। उनके बच्चे यहीं अपने पापा के स्कूल में पढ़ने लगे।

तब हमारे गांव के पूर्वी छोर पर इकलौता मिडिल स्कूल था ( अब यह हाई स्कूल में प्रोन्नत हो गया है)। गांव भर के बच्चे अपने-अपने प्राइमरी स्कूलों की पढ़ाई पूरी करने के बाद इसी मिडिल स्कूल में नाम लिखवाते थे। मास्टर साहब के बच्चे भी बारी-बारी से इसी स्कूल में पढ़ने आए। बड़े भैया मेरे एडमिशन लेने से पहले मिडिल स्कूल से पास होकर पातेपुर हाई स्कूल में जा चुके थे। मास्टर साहब के मंझले बेटे ने मेरे साथ ही मिडिल स्कूल में एडमिशन लिया था। हाईस्कूल तक हम साथ पढ़े। उसका छोटा भाई मेरे छोटे भाई का और बहन मेरी छोटी बहन की क्लास फेलो रही।

मैं अपनी आदत के मुताबिक एक बार फिर अपने मूल विषय से भटक गया। मास्टर साहब से बात शुरू करके कहां वैशाली की व्यथा-कथा और फिर मास्टर साहब के परिवार तक की गाथा सुनाने लगा, जबकि इस पोस्ट का मूल मकसद मास्टर साहब की विशिष्टताओं से अवगत कराना था। 

अस्तु ... मास्टर साहब अध्यापन की मूल प्रवृत्ति के साथ ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आस-पड़ोस में होने वाली शादी-विवाह समेत अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी उनकी सक्रिय सहभागिता रहा करती थी। उस समय यज्ञ-प्रयोजन में आजकल की तरह हलवाई को बुलाने का चलन नहीं था। भोज-भात में लोग-बाग खुद ही मिल-जुलकर खाना बनाते थे। ...और ऐसे अवसरों पर विशेष रूप से सब्जी में तेल-मसाला-नमक आदि के सही अनुपात के निर्धारण में मास्टर साहब की पाक कला की निपुणता के लोग बरबस ही कायल हो जाते। 

मास्टर साहब को संगीत, अभिनय, नृत्य  कला में भी प्रवीणता हासिल थी। यही वजह थी कि अपने विद्यालय से लेकर अन्य विद्यालयों में भी सरस्वती पूजा आदि के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति में उनकी मदद अवश्य ही ली जाती थी। उन दिनों हमारे गांव का नवयुवक संघ कला-संस्कृति के क्षेत्र में अच्छी-खासी दखल रखता था। दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ जैसे अवसरों पर नवयुवक संघ के बैनर तले नाटकों का मंचन हुआ करता था। नाटक के तीन-चार दृश्यों के बाद नृत्य-गायन-कॉमिक की प्रस्तुति हुआ करती थी, जिसका इंतजार बड़ी ही बेसब्री से दर्शकों को रहा करता। उसके बारे में फिर कभी...। अभी तो बस इतना ही कहना चाहूंगा कि मास्टर साहब ने इन रंगमंचों पर एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियां दीं, जो आज भी वहां के लोगों के स्मृति पटल पर अंकित हैं। कल एक मित्र ने एक मशहूर नृत्यगुरु की प्रस्तुति का वीडियो व्हाट्सएप पर भेजा तो मुझे मास्टर साहब की अद्भुत अद्वितीय एकल नृत्य प्रस्तुति " महिषासुर मर्दिनी"  का सहसा ही स्मरण हो आया। 

चलते-चलते
बच्चों के हाई स्कूल पास करने के बाद उनकी पढ़ाई के मद्देनजर मास्टर साहब का परिवार मुजफ्फरपुर चला गया। इसके बावजूद मास्टर साहब हमारे गांव में ही बने रहे। इस बीच उनका तबादला पड़ोस के गांव के  मध्य विद्यालय में हो गया तथा वहीं से वे रिटायर भी हुए। उसके बाद से मास्टर साहब भी अपने बच्चों के साथ मुजफ्फरपुर में ही रहते हैं। इसके बावजूद हमारे गांव से उनका संबंध आज भी बरकरार है। हमारे गांव में होने वाले यज्ञ-प्रयोजन में उनके परिवार से कोई न कोई सदस्य अवश्य ही शामिल होता है और मास्टर साहब के परिवार में होने वाले आयोजनों में हमारे गांव वालों की सहभागिता जरूर रहती है। अफसोस...बढ़ती हुई उम्र के कारण मास्टर साहब कई तरह की शारीरिक परेशानियों से घिरे रहते हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि मास्टर साहब श्री शिवाकांत प्रसाद जी को बेहतर स्वास्थ्य और लंबी आयु प्रदान करें।

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