Saturday, May 9, 2020

अन्नदाता ही पेट भरेगा





बिहार के वैशाली जिला स्थित मेरा गांव आस-पड़ोस के कई गांवों में अपेक्षाकृत काफी बड़ा है। बचपन के दिनों में खेती के कामों के लिए अपने गांव के अलावा आस-पड़ोस के गांवों से भी मजदूर बुलाए जाते थे। मजदूरों को लाने के लिए सुबह-सुबह जाना पड़ता था। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर बुकिंग होती थी। देर होने पर अगले दिन का इंतजार करना पड़ता। फसलों की कटाई और कमैनी ( निकाई-गुडाई) के समय अधिक मजदूरों की जरूरत होती, इसलिए हर किसी को काम मिल जाता था।

 वहीं बाकी दिनों में किसान अपेक्षाकृत अधिक मेहनतकश मजदूरों की ख्वाहिश रखते। ऐसे में पड़ोस के गांव की कई महिलाएं काम की आस में खुद ही चलकर आ जातीं। उनकी कमर से अटकी एक टोकरी होती, जिसमें एक अदद हंसुआ, खुरपी और पुराने कपड़े का एक टुकड़ा हुआ करता। 

तब पशुपालन खेती से जुड़ा हुआ था। बैल, गाय- भैंस जैसे पशु किसानों के जीवन के अभिन्न अंग थे। जानवरों के साथ रहने के कारण लोग उनके बारे में बहुत कुछ जानते थे और इसी कारण शायद पशुता से दूर रहा करते थे। ऐसे में ममता और सहृदयता से भरपूर कि‌सान परिवार उस मजबूर मजदूर को खेत में कोई काम न होने पर घर के आगे-पीछे बाड़ी-झाड़ी में फल-सब्जी की निकाई-गुड़ाई करने को कह देता या फिर गोइठा ( उपले) पाथने को कहा जाता। पुरुष मजदूर होने पर उसे जलावन की लकड़ी चीरने का काम दिया जाता। ऐसे काम बारहमासी हुआ करते थे और इस तरह उस महिला या पुरुष मजदूर की दिहाड़ी पक्की हो जाती। कहते हैं कि आदमी सुबह भूखा उठता है, लेकिन भगवान उसे रात को भूखे नहीं सोने देते। बचपन में गांव में किसानों को कुछ ऐसी ही भूमिका में मैंने देखा है। 
वहीं आज कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के दौर में शहरों में जब पूंजीपतियों- उद्योगपतियों ने जब अपनी जिंदगी समर्पित कर देने वाले मेहनतकश मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया है और वे बेबस भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव-अपने देस जाने को मजबूर हैं, ऐसे में साधनविहीन किसानों की वह  सदाशयता बरबस ही याद आ गई है। 

हालांकि बदलते हुए समय के साथ आज गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया है। मौजूदा माहौल में खेती फायदे का सौदा नहीं रही। मगर जिन कारणों से ऐसा हुआ है, सरकार यदि उन समस्याओं का समाधान कर‌ दे, उद्योगों की तरह खेती के प्रोत्साहन के लिए भी किसानों के साथ मिलकर मन से योजनाएं बनाई जाएं और ईमानदारी से उनका क्रियान्वयन किया जाए तो धरती माता अपनी हर संतान का पेट‌ भर सकती है। ... फिर किसी को पलायन की पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ेगी।


मोर सैयां काहे न खाएत पान...

धान की कटाई के समय तो पूरे गांव में डेढ़-दो महीने तक त्यौहार जैसा मौसम हुआ करता था। हर हाथ को काम मिलता। ...और शारीरिक मेहनत नहीं करने वालों को भी मां अन्नपूर्णा का भरपूर आशीर्वाद मिला करता था।‌ खलिहान में कोई नट अपने करतब दिखाकर किसानों और उनके बच्चों का मनोरंजन करता  तो कोई भाट मालिकों का यशोगान करता और भरपूर धान लेकर जाता।
भारत के एटलस पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला देसी-विदेशी पक्षियों के बसेरे के लिए मशहूर बरैला झील हमारे लिए महज चौड़ था, जहां पानी में नाव पर धान की कटाई होती। पनहेरी ( पान वाला) सुबह-सुबह आ जाता और दिन भर घूम-घूम कर लोगों को पान खिलाता। समय साथ दे और उपज अच्छी हो तो किसानों में छोटे-बडे का अधिक अंतर महसूस नहीं होता। तभी तो यह कहावत चलन में आ गई थी- " जब धाने के पान तऽ मोर सैयां काहे न खाएत पान।" दिसंबर में वार्षिक परीक्षा के बाद स्कूल से फ्री होने के कारण हम बच्चे भी जिद करके बड़े-बुजुर्गों के साथ धनकटनी में चले जाते। वहां से पान खाकर लौटते और गर्व से दूसरे भाई-बहनों को अपने लाल-लाल होठ और जीभ दिखाते, जिन्हें उस दिन धनकटनी में जाने का मौका नहीं मिल पाता था।

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