तकनीक का सहारा
ट्रेन का सफर हर बार नए अनुभव कराता है। और सर्वाधिक प्रभावित करने वाले अनुभव स्लीपर कोच में होते हैं। हालांकि जनरल कोच में और भी विरल अनुभूति हो सकती है, मगर इतनी हिम्मत कहां। मगर हालात अनुकूल हों तो ट्रेन के सफर में मैं स्लीपर कोच को ही वरीयता देता हूं। सो गुलाबी नगर जाने के लिए एक बार फिर मरुधर एक्सप्रेस में बैठा हूं। बाहर का नजारा देखकर मन दुखी है। कल तक गेहूं की जो लहलहाती फसल आंखों को सुकून देने के साथ ही किसानों के अरमानों को नई उड़ान देती थीं, कल उन पर ओलों ने ऐसी चोट की कि फसलें जहां की तहां औंधी लेट गईं। इसके साथ ही हजारों किसानों के सपनों की भी हत्या हो गई।
चूंकि खेती-किसानी से बचपन से ही नाता रहा है, सो किसानों की पीड़ा का झंझावात मन में हलचल मचाए था। इसी बीच नबी की शान में गाए जाने वाली कव्वाली की आवाज कान में पड़ी।
पिछले आठ-नौ साल से इस ट्रेन में सफर करते हुए यही समझ पाया हूं कि इसमें अधिकांश सवारियां मेहंदीपुर बालाजी के श्रद्धालुओं और फिर उसके बाद अजमेर शरीफ दरगाह जाने वालोंं की होती है। ऐसे में ईश्वर-अल्लाह के नाम पर मांगकर गुजारा करने वालों के लिए ये सॉफ्ट टारगेट होते हैं। पहले देखा करता था कि दो लोग एक हरा चादर फैलाए हुए यात्रियों के बीच से गुजरते हुए चलते थे, जिस पर उर्दू में कुछ लिखा होता था था। इसके साथ वे नबी की शान में कुछ गाते भी थे।
मगर इस बार तो यह बंदा अकेले ही था। सुनहरे रंग की चादर फैलाए इस शख्स के होठों पर भी कोई जुंबिश नहीं दिख रही थी और काफी बुलंद आवाज में कव्वाली के अल्फाज पूरी बोगी को गुंजायमान किए थे। तभी मेरी नजर उसके कमर में लटके यंत्र पर पड़ी। तब मेरी समझ में आया कि तकनीक की कश्ती पर सवार इस शख्स को इस छोटे से साउंड सिस्टम ने जहां किसी और को अपनी कमाई में साझीदार बनाने से बचाया, वहीं दिन भर तेज आवाज में चिल्ला-चिल्लाकर गला खराब होने की परेशानी से भी बचा दिया। जय तकनीक...जय विज्ञान।
07 मार्च 2020
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