किसानों की आशाओं को नई ऊंचाइयां देने वाला आषाढ़ महीना विदा होने को है। उमड़ते-घुमड़ते बादलों के फूल लिए आकाश मनभावन सावन का स्वागत करने को आतुर है। ये दोनों महीने किसानों के जीवन में सर्वाधिक महत्व रखते हैं। इन्हीं महीनों में वे धान के बिचड़े के रूप में खेतों में अपनी खुशियां रोपते हैं। ... और खुशियों का यह उत्सव बिहार स्थित मेरे गृहजिला वैशाली के साथ ही पड़ो के समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर आदि जिलों के घरों में "घड़ी पर्व" के रूप में मनाने की परंपरा है। स्थानीय बोली में घड़ी पर्व को "घड़ी पवनी" कहा जाता है। कई स्थानों पर आषाढ़ तो कई स्थानों पर सावन के महीने के शुक्ल पक्ष में अलग-अलग दिन यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह उक्ति प्रचलित हो गई- घर छोड़ी तऽ छोड़ी, घड़ी पवनी न छोड़ी....
पहले गांवों में लोगों के पास नकदी का अभाव था। ऐसे में खुशियां मनाने के लिए अपने खेत में खुद की मेहनत से उपजाई फसलों का ही सहारा था। सो घड़ी पवनी में कुलदेवता को गुड़ की खीर और चने की दाल की पूड़ी चढ़ाई जाती और प्रसाद स्वरूप परिवार के लोग इसका लुत्फ उठाते। हालांकि बदलते हुए समय के साथ खीर में गुड़ का स्थान अब चीनी ने ले लिया है। इसके बावजूद घड़ी पवनी आज भी उसी मान्यता और श्रद्धाभाव से मनाया जाता है।
लड़कियों की हथेली, पुरुषों के तलवों में मेहंदी
रूपसियों के सौंदर्य में रंग भरने के साथ ही मेहंदी पुरुषों की पीड़ा कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए लड़कियां सावन के महीने में सोमवार का व्रत रखती हैं। इस दौरान झूला झूलने तथा मेहंदी लगाने का भी काफी क्रेज है। आज से तीस-चालीस साल पहले गांवों में आजकल बाजार में बिक रही कोन वाली रेडिमेड मेहंदी नहीं पहुंची थी। तब हम बच्चे दीदी के लिए आस-पड़ोस में लगी झाड़ियों में से मेहंदी के पत्ते तोड़कर लाते। चटख रंग उभरकर आए, इसके लिए उसमें पुराने छप्पर की फूस, खपड़ा मिलाकर उसे सिलबट्टे पर पीसा जाता और फिर उसमें नींबू का रस मिलाकर दीदी अपनी हथेलियों पर मेहंदी रचाती। वहीं, धनरोपनी के दौरान लगातार पानी में खड़े रहने से पुरुषों के पैरों में पानी लग जाता, जिससे भयंकर खुजली होती। कई बार तो तलवे की खाल में छोटे-छोटे गड्ढे से पड़ जाते। अंगुलियों के बीच की चमड़ी बिल्कुल सफेद पड़ जाती। इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए वे रात को तलवों में मेहंदी लगाते, जिससे पानी का असर कुछ कम होता।
खुद की ही नहीं, बैलों की भी फिक्र
पहले खेत को जोतने से लेकर गेहूं और धान की फसल पकने के बाद उसकी दवनी (थ्रेशिंग) तक की जिम्मेदारी बैलों के कंधे पर थी। किसान अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही बैलों का भी खयाल रखते थे। धनरोपनी के दौरान लगातार हो रही बरसात के बीच खेत की जुताई के कारण बैलों को सर्दी लगने का डर बना रहता था। ऐसे में शाम को बैलों की सींग में सरसों तेल लगाने के साथ ही गर्मी पहुंचाने के लिए उसे भूसे में महुआ मिलाकर दिया जाता था। अब तो ट्रैक्टर ने सारी जिम्मेदारी संभाल ली है। बैल पुराने जमाने की बात हो गए। हर घर की कौन कहे, पूरे गांव में बमुश्किल एकाध जोड़ी बैल बचे हों।
जुबां पर नक्षत्र, आसमां पर निगाहें
सनातन परंपरा में 27 नक्षत्रों का जिक्र आता है। बच्चे के जन्म पर नामकरण तथा उसके भविष्य के बारे में जानने की उत्कंठा लिए परिवार वाले पंडितजी के पास जाते। दिन और समय के हिसाब से पंडितजी बताते कि बच्चे का जन्म फलां नक्षत्र में हुआ है। लेकिन बारिश के मौसम में कब कौन-सा नक्षत्र आएगा, इसके बारे में जानने के लिए कभी किसी किसान को पंडितजी से पूछने या पंचांग-पतरा देखने की जरूरत नहीं होती थी। रोहिणी से लेकर मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हथिया, चित्रा और स्वाति नक्षत्र में से कब कौन नक्षत्र चल रहा है, यह उनकी जुबान पर रहा करता था। नक्षत्र के हिसाब से आसमां का रंग और बादलों की अठखेलियां देखकर वे बता देते थे कि कितनी देर में और कितनी बरसात होगी।
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