Tuesday, July 14, 2020

गोरलगाई, मुंहदिखाई


गोरलगाई, मुंहदिखाई...

भारतीय सनातन परंपरा में सोलह संस्कारों की बात कही गई है। हर संस्कार के साथ कई रस्में जुड़ी होती हैं और इन संस्कारों का असली आनंद इन्हीं रस्मों में छिपा होता है। इन सोलह संस्कारों में जन्म और विवाह के अवसर पर मनाई जाने वाली खुशियों के क्या कहने। हालांकि शिशु के जन्म के समय परिवार वाले भले ही उत्सव मनाते हों, मगर अबोध शिशु इन खुशियों का मतलब क्या समझे। हां, शादी के अवसर पर परिवारी जनों के साथ ही वर-वधू भी मोद-आनंद का भरपूर लुत्फ उठाते हैं।

विवाह में वर-वधू अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर अपनी अलग-अलग पहचान को उसी पवित्र अग्नि में होम करके दंपती के रूप में एकाकार हो जाते हैं, वहीं दोनों के परिवार भी संबंधों के अदृश्य डोर में बंध जाते हैं। मगर अफसोस, दो दिलों और दो परिवारों के जुड़ने के इस अमूल्य आनंद के उत्सव में दिखावे का चलन कहां से आ गया। तभी तो शादी में वधू के दरवाजे पर होने वाले थोड़ी देर के आयोजन में वर पक्ष वाले अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। गाड़ी-घोड़े के काफिले, बैंड-बाजे के साथ हर्ष फायरिंग तक दिखावे की हर रस्म निभाई जाती है। कई स्थानों पर तो कमर में तलवार लटकाए दूल्हा घोड़े पर बैठकर शादी करने जाता है और तोड़न मारकर ऐसा साबित करता है कि न जाने कितना बड़ा तीर मार दिया हो। 

संतोष की बात है कि बिहार में यह चलन नहीं है, इसलिए यह अपराध करने से मैं बच गया। मगर एक अन्य अपराधबोध आज भी सालता रहता है कि छठी से दसवीं तक रोजाना छह-सात किलोमीटर पैदल चलकर पातेपुर हाई स्कूल और फिर मुजफ्फरपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान किराए के आवास से करीब इतनी ही दूरी कदमों से नापने वाला मैं भी कार में बैठकर ही विवाह करने गया था। हांलाकि, यह अपराधबोध इस बात से थोड़ा कम अवश्य हो जाता है कि वह कार मेरे लंगोटिया यार के भैया की थी और मेरे प्रति सहज स्नेह के कारण भैया खुद उसे चलाकर ले गए थे।

अस्तु, वरमाला के आयोजन तक दूल्हे के चेहरे पर गजब सी शोखी छायी रहती है। मंडप पर पहुंचने के बाद शादी के दौरान पंडित जी के बोले गए मंत्रों को उनके पीछे-पीछे दुहराते हुए और उनके निर्देशों का पालन करते हुए दूल्हे की अकड़ ढीली पड़ने लगती है। इस दौरान कदम-कदम पर महिला मंडली की टोकाटाकी रही-सही कसर पूरी कर देती है। फिर तो वह सर्कस के शेर की तरह बिना किसी ना-नुकर के रिंग मास्टर बनी महिला मंडली के निर्देशों को चुपचाप मानता जाता है।...और फिर आ जाती है विदाई की वेला। आनंद के क्षण अचानक बंद। जाते हैं विरह की वेदना में । रोती हुई नववधू अपनी मां-बहन-भाई समेत सभी परिवारी जनों के गले लगकर विदा लेती है।
...और दूल्हा...उस बेचारे की स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे नाटक के मंचन के समय निर्देशक किसी पात्र को मूकदर्शक बनकर खड़े रहने को विवश कर दे। होना तो यह चाहिए कि विदाई के इन क्षणों में दूल्हा विवाह समारोह में आए बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम कर नव गृहस्थ जीवन की सफलता के लिए उनका आशीर्वाद ले। मगर वधू पक्ष में सास-ससुर-साले-साली के अलावा उस परिवार के अधिक लोगों को वह जानता ही नहीं, सो किंकर्तव्यविमूढ़ सा टुकुर-टुकुर देखता रहता है। इस बीच वधू पक्ष के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोग अपनी मुट्ठी में रखे हुए रुपये दूल्हे को थमाते हैं, तब दूल्हा तत्परता से झुककर उनके पैर छूता है। बिहार में हमारे यहां इसे गोरलगाई कहते हैं। ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की बात तो समझ में आती है, यह अच्छे संस्कार का परिचायक भी है, मगर रुपये देने के बाद औपचारिकतावश किसी के पैर छूना...कितना अव्यावहारिक लगता है...मगर आन-बान-शान और मान के साथ ससुराल की धरती पर पहला कदम रखने वाले दूल्हे को लौटते वक्त यह परंपरा निभानी पड़ती है। करीब 23 साल पहले मैंने भी निभाई थी...बेमन से ही सही।  
दुल्हन की बात करें तो माता-पिता के साथ ही अपना घर-परिवार छोड़कर एक नये जीवन के सफर पर चल देती है जहां सर्वथा अनजान परिवेश-परिवार से उसका सामना होता है। दुल्हन जब ससुराल आती है तो समारोहपूर्वक उसका स्वागत किया जाता है। बहू की सुन्दर सलोनी सूरत की एक झलक देखने के बाद सास उसे मनभावन उपहार देती है। फिर शादी समारोह में पहुंचीं महिलाओं के साथ ही टोले-मोहल्ले की महिलाएं एक-एक कर कोहबर घर में सिमटी सकुचाई नवविवाहिता दुल्हन को देखती हैं। गांवों में इसे मुंहदिखाई की रस्म कहा जाता है। रसिकहृदय सौंदर्य प्रेमियों ने रमणी की आंखों की व्याख्या अपनी-अपनी कल्पना और सौंदर्य बोध के हिसाब से की है। रूपसी की आंखों पर कवियों ने भी बहुत कुछ लिखा है, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, यह सब खुली आंखों के लिए ही कहा गया है। जबकि मुंहदिखाई की रस्म के दौरान दुल्हन अपनी आंखें बंद रखती हैं। इसके पीछे का तर्क मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
कई मुंहफट महिलाएं दुल्हन के रूप-रंग को लेकर अव्यावहारिक टिप्पणी करने से बाज नहीं आतीं। सो मुंहदिखाई के समय दुल्हन की आंखें भले बंद रहती हों, लेकिन जहर बुझे ये बाण कानों से होकर उसके दिल में तो उतर ही जाते हैं। कई नवविवाहिताएं इस नकारात्मक टिप्पणी को चुनौती के रूप में लेते हुए आने वाले दिनों में अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेती हैं। तब पति या परिवार के अन्य सदस्यों के लिए उसके रूप-सौंदर्य की कमतरी कोई मायने नहीं रखती। ...और फिर आस-पड़ोस की महिलाओं के लिए वह आदर्श बन जाती हैं।

चलते-चलते

हमारे समाज में कोई भी परंपरा यूं ही बेमतलब नहीं हुआ करती। सबके पीछे कुछ न कुछ तर्क अवश्य ही होता है। पहले के जमाने में कहते थे-उत्तम खेती, मध्यम बान, निरघिन चाकरी, भीख निदान। तब खेती का समाज में सर्वोत्तम स्थान था। बान यानी व्यापार को मध्यम दर्जे का तथा नौकरी करने को निकृष्ट कर्म माना जाता था। तो खेती करने वाले परिवार के सद्य: विवाहित युवक के पास पैसे होना दूर की कौड़ी थी। ऐसे में नवविवाहिता पत्नी के लिए कोई उपहार लाने का मन हो या फिर दोस्तों को पार्टी-शार्टी देने की बात, तो उसके लिए गोरलगाई में मिला पैसा ही काम आता था। ऐसे ही मुंहदिखाई में मिले रुपये नवविवाहिता दुल्हन के लिए भी काफी महत्व रखते थे। बीतते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन संतोष की बात है कि गांवों ने अब भी ये परंपराएं संजोए रखी हैं।     

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