गांव-गांव गंगा, द्वार-द्वार प्याऊ
कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा। ...और जब मन में परोपकार तथा जीव मात्र के कल्याण की भावना से संकल्पबद्ध होकर तालाब खुदवाया जाए तो फिर ऐसे तालाब को तो गंगा का दर्जा दिया ही जा सकता है। पहले अमूमन हर गांव में सार्वजनिक रूप से या कोई संपन्न व्यक्ति खुद के खर्च से ही तालाब खुदवा देता था। हालांकि व्यक्तिगत प्रयास से खुदवाए गए इस तालाब का उपयोग गांव के सभी लोग स्नान करने, कपड़े और बर्तन धोने के अलावा धार्मिक क्रियाकलाप के लिए भी किया करते थे। यहां तक कि पशुपालक अपने पशुओं को नहाने और पानी पिलाने के लिए इन तालाबों का उपयोग निर्बाध रूप से किया करते थे।
वैशाली के ऐतिहासिक पुष्करणी सरोवर की ख्याति तो भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और अनिंद्य सुंदरी आम्रपाली के साथ भारत की सीमा को पार कर संपूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। मिथिला क्षेत्र में तालाब की बहुतायत के कारण " पग-पग पोखर माछ मखान" जैसी लोकोक्ति प्रचलित हो गई। ...और बिहार में कार्तिक शुक्ल षष्ठी-सप्तमी के दिन भगवान सूर्य की उपासना के महापर्व छठ के अवसर पर तालाबों के सजे-धजे घाट और श्रद्धालुओं की भीड़ सहज ही गंगा तट का अहसास कराती है। वहीं, दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के दौरान प्रतिमा विसर्जन से मानव शरीर की नश्वरता का संदेश भी अनायास ही मिल जाता।
वहीं, पहले गांवों में हर पांच-दस घर के बीच एक कुआं ( इनार-इंडा) अवश्य ही हुआ करता था। इन कुओं पर डोरी से बंधी बाल्टी रखी रहती, ताकि वहां से गुजर रहा कोई भी व्यक्ति अपनी प्यास बुझा सके। कई बार असावधानीवश हाथ से रस्सी छूट जाने से बाल्टी कुएं में गिर जाती, जिससे बड़ी समस्या हो जाती। तब कुआं में कांटा डाल उसमें फंसाकर बाल्टी निकाली जाती। हर टोले-मोहल्ले में कुआं में गिरी बाल्टी को हिकमत से निकालने वाले विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। बार-बार कुएं में बाल्टी गिरने की समस्या का सामना न करना पड़े, इसलिए कई कुओं पर दो खंभों के बीच एक बांस को फंसा दिया जाता। बांस के एक छोर पर कोई वजनी लकड़ी बांध दी जाती तथा बांस के दूसरे छोर से रस्सी से बंधी बाल्टी होती, जिससे बच्चों तक के लिए कुएं से पानी निकालना आसान हो जाता। हमारे यहां स्थानीय भाषा में इसे "ढेकुल" कहा जाता था।
परिवर्तन संसार का नियम है। किसी की सत्ता हमेशा कायम कहां रह पाती है। सो बीतते हुए समय के साथ इन कुओं का कमाल भी धीरे-धीरे कम होने लगा और लोहे के पतले पाइप के जरिए पाताल से पानी खींचने वाले चांपाकल (हैंडपंप) का जलवा छाने लगा। ये चांपाकल अमूमन दरवाजे पर गड़वाए जाते, ताकि वहां से गुजरते हुए राहगीर भी अपनी प्यास बुझा सकें। वहीं, परिवार के लोग किसी काम से बाहर जाने पर लौटने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर में प्रवेश करते। इससे बाहर की गंदगी घर की चौखट के अंदर प्रवेश नहीं कर पाती।
शहरों में अपेक्षाकृत अधिक संपन्नता होने के कारण सुरक्षा का भाव भी अधिक प्रबल होता है। सो शहरों में मकान चारदीवारी के कवच में सिमटे होते हैं। इन मकानों में गांवों की तुलना में काफी अधिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, मगर इनके सामने से गुजरते हुए किसी राहगीर को प्यास लग जाए, तो उसकी समस्या का समाधान कदापि संभव नहीं हो पाता। महज प्यास बुझाने के लिए बड़ी अट्टालिकाओं की कॉल बेल बजाने की हिम्मत करना इतना आसान भी कहां होता है। हां, कुछ उदारमना लोग अपनी चारदावारी के बाहर वाटर कूलर जरूर लगा देते हैं। हालांकि हाइजिन के प्रति अधिक जागरूक शहरी लोग जूते-चप्पल के साथ आई बाहर की गंदगी लिए बेझिझक अंदर चले जाते हैं, क्योंकि उनके मकान में मेन गेट के बाहर हाथ-पैर धोने की व्यवस्था होती ही नहीं।
कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी ने लोगों की जान सांसत में डालने के साथ ही आचार-व्यवहार सब कुछ बदलकर रख दिया है। कल एक अखबार में इसी बदलाव को रेखांकित करती खबर पढ़ी। इसका लब्बोलुआब यह था कि डवलपर्स अब घरों की डिजाइन में कोरोना नॉर्म्स को शामिल कर रहे हैं। इसके तहत , घर के बाहर हाथ-पैर धोने का स्पेस रखा जा रहा है। इस खबर को पढ़ने के बाद सहसा ही याद आ गए गांव के दिन जब बाहर से आने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर के अंदर प्रवेश करना हर आम-ओ-खास की आदत में शुमार था।
इतिहास हो गये इनार
बदलते हुए समय के साथ गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया। कुआं खुदवाने की तुलना में हैंडपंप लगवाना ज्यादा आसान और कम श्रमसाध्य था। फिर हैंडपंप कुआं के मुकाबले जगह भी कम घेरता था और इससे पानी निकालना भी कहीं अधिक आसान होता है। इसके साथ ही कुएं की तरह हैंडपंप में न बाल्टी गिरने की चिंता रही न किसी बच्चे के गिरने की आशंका, सो धीरे-धीरे हैंडपंप का चलन बढ़ता चला गया और इनार इतिहास बनकर रह गए। अब तो गांव में बमुश्किल एकाध कुआं ही बचा है, जहां लड़की की शादी के अवसर पर पनकट्टी की रस्म के लिए मंगलगान करती हुई महिलाओं का हुजूम उमड़ता है।
झूठी हो गई कहावत
पहले के समय में मनुष्य मशीनों कां दास नहीं हुआ था। उसे अपने बाहुबल पर भरपूर भरोसा था। सो, इन तालाबों की खुदाई कुदाल-फावड़े से इस कदर की जाती थी कि गहराई धीरे-धीरे बढ़ती थी। तभी तो कहते थे कि अपने गांव के तालाब और दूसरे के गांव के श्मशान में डर नहीं लगता। दरअसल लोगों को अपने गांव के तालाब की गहराई का अंदाजा होता था, जबकि दूसरे गांव में तालाब की गहराई से अनभिज्ञ होने के कारण डर लगता था। मगर अब तो गांवों में तालाब महज मछली पालन की जगह बनकर रह गए हैं। जेसीबी से इस कदर खुदाई करा दी जाती है कि पता ही नहीं चलता कहां कितनी गहराई है। रही-सही कसर पूरी कर देती है तालाब में मछलियों की उदरपूर्ति अथ च पोषण के लिए डाली गई सामग्री। इससे पानी में ऐसी बदबू भर जाती है कि बताना मुश्किल है। यही वजह है कि गांवों में भी अब तालाब में नहाने का चलन खत्म हो गया है। छठ पूजा भी दरवाजे पर गड्ढा खोकर कर ली जाती है।
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