देश और राज्य की तरह हर समाज-गांव की भी अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। हमारे यहां सदियों से सामाजिक जीवन में धर्म पूरी तरह रमा-बसा हुआ है। इसकी झलक उस गांव विशेष की उपासना पद्धति, भजन-कीर्तन में सहज ही देखी जा सकती है।
बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारा गांव आस-पड़ोस के गांवों के मुकाबले क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से अपेक्षाकृत काफी बड़ा है। ऐसे में भजन-कीर्तन की कमान गांव के हर टोले में अलग-अलग कीर्तन मंडली के पास थी। इन कीर्तन मंडलियों के पास साज के नाम पर महज एक ढोलक, चार-छह जोड़ी झाल (मंजीरा) और किसी-किसी के पास दो-चार जोड़ी करताल हुआ करती थी। मगर भक्ति भाव में तल्लीन होकर जब वे सामूहिक टेर छेड़ते तो मंत्रमुग्ध श्रोता भक्ति रस-गंगा में गोते लगाने लगते।
आज से चार-पांच दशक पहले हमारे टोले में अमूमन हर मंगलवार और शनिवार की शाम किसी न किसी के यहां सुंदरकांड का पाठ हुआ करता था। इसका सुफल यह भी देखने में आता कि अक्षरज्ञान से अनभिज्ञ कई लोगों को भी पूरा सुंदरकांड कंठस्थ हो गया था। वहीं आश्विन महीने के शारदीय नवरात्र में दुर्गा पूजा के दौरान विभिन्न सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ ही रामचरितमानस के नवाह्न पारायण पाठ नियमित रूप से होते थे। साल में दो-चार बार कहीं न कहीं रामचरितमानस का 24 घंटे का अखंड पाठ भी हो ही जाता था। इस दौरान सामूहिक समवेत स्वर में मानस के पाठ से बड़ा ही मनोरम और हृदयग्राही वातावरण उपस्थित हो जाता। इसके साथ ही ब्रह्म स्थान, शिव मंदिर पर सामूहिक रूप से या फिर व्यक्तिगत रूप से किसी के यहां अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के भी आयोजन होते थे। अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के बाद पूरे गांव में शोभायात्रा निकाली जाती, जिसमें कीर्तन मंडली भजन गाती चलती।
इन सभी आयोजनों की पूर्णाहुति के बाद आरती गायन का आनंद भी अद्भुत-अद्वितीय हुआ करता। बचपन के दिनों को याद करता हूं तो श्री टेकनाथ झा अपने भावपूर्ण स्वरों में जब "आरती कुंज बिहारी की...गिरिधर कृष्ण मुरारी की" गाते तो कीर्तन मंडली की कौन कहे, वहां उपस्थित पूरा जन समुदाय ही उनके पीछे-पीछे इस आरती को दुहराने लगता। उनकी मधुर आवाज में " आरती करो, हरिहर की करो, नटवर की भोले शंकर की..." सुनकर भी लोग भाव विभोर हो जाया करते। इस कीर्तन मंडली के व्यास हुआ करते थे श्री सत्यनारायण कुमर उर्फ नीरू कुमर। वे जब " करिअउन आरती मंगलिया बजरंग बली की" और " बैसू बाबा कांवड़ में आरती उतारू हे..." गाते तो ऐतिहासिक नगरी वैशाली की अपनी बोली वज्जिका और मिथिलेश नंदिनी की बोली मैथिली की मिठास वातावरण में घुल जाती।
हमारे टोले की कीर्तन मंडली में ढोलक बजाने की जिम्मेदारी श्री बालेंद्र मिश्र बखूबी निभाते थे। बच्चे जब उन्हें प्रणाम करते तो वे आशीर्वाद देते - माखन-मिश्री खाओ, खूब मोटाओ। उनके स्वभाव की यह विशेषता शायद माखन-मिश्री के प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना के फलस्वरूप थी। ...और यही कारण था कि भजन-कीर्तन के दौरान कई बार उनके अंदर का भी गायक जाग उठता और ढोलक बजाने के साथ-साथ वे गा उठते- "छोटी छोटी गैया मेरो, छोटे-छोटे ग्वाल बाल, छोटे-छोटे हमरो मदन गोपाल...घास खएतई गैया मेरो, दूध पीतई ग्वाल बाल, माखन खएतई हमरो मदन गोपाल। ...और इस भजन की प्रस्तुति से मानों गोकुल और नंदगांव का दृश्य साकार हो उठता।
अपने टोले ही नहीं, गांव में भी कहीं सुंदरकांड और रामचरितमानस पाठ का आयोजन होता तो श्री विश्वनाथ मिश्र यदि गांव में रहते तो उनकी उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। रामचरितमानस की सैकड़ों चौपाइयां, दर्जनों छंद-दोहे उन्हें याद थे, जिन्हें परस्पर बातचीत के दौरान वे प्रसंग सहित सुनाया भी करते थे।
मेरे पिता तुल्य अग्रज श्री रामकुमार मिश्र भी इस कीर्तन मंडली की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी थे। रामचरितमानस को तो उन्होंने अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया था। प्रतिदिन सुबह पूजा के दौरान वे रामचरितमानस के कुछ पृष्ठ नियमित रूप से अवश्य पढ़ते। मानस के प्रति समर्पण का ही परिणाम था कि व्यस्तताओं के बावजूद वे सुंदरकांड और रामचरितमानस के अखंड पाठ में अवश्य ही शामिल होते। श्री भरतनारायण मिश्र भी इन आयोजनों में अवश्य ही सहभागिता निभाते। मुझे आज भी याद आता है जब पड़ोसी गांव मंडईडीह के एक मंदिर में चंद्रग्रहण पर आयोजित रामचरितमानस के अखंड पाठ में अपने गांव के कई लोगों समेत मैं भी उनके साथ गया था। इनके अलावा श्री राम किशोर मिश्र भी नियमित रूप से सुंदरकांड पाठ के आयोजनों में अवश्य ही शामिल होते। अफसोस, यहां जिन भगवद्प्रेमियों का मैंने जिक्र किया है, वे सभी अब हमारे बीच नहीं रहे, परमपिता परमेश्वर के धाम के निवासी हो गए। हालांकि उनकी ओर से प्रवाहित भक्ति-सरिता आज भी समाज में अविरल रूप से प्रवाहित हो रही है।
नौ दिनों तक रहा भक्तिमय वातावरण
हमारे गांव के लोगों के पुण्य का फल कहें या फिर पूर्वजों का आशीर्वाद कि महान संत मौनी बाबा ने 1970 के दशक में नौ दिवसीय गायत्री महायज्ञ के लिए हमारे गांव का चयन किया था। उस दौरान जहां हवन-यज्ञ के दौरान गायत्री महामंत्र से वातावरण गुंजायमान रहा, वहीं अपने गांव समेत आस-पड़ोस के दर्जनों गांवों की कीर्तन मंडलियों ने लगातार नौ दिनों तक अहर्निश हरिनाम संकीर्तन " हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। " के मधुर गायन से वातावरण को भक्तिमय बनाए रखा। इसके अलावा प्रभु श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं के मंचन श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र होते। अपने जिले की कौन कहे, आस-पड़ोस के जिलों के हजारों लोग इस महायज्ञ में शामिल होकर पुण्य के भागीदार बने। हम बच्चे इस आयोजन के धार्मिक महत्व को तो क्या और कैसे समझ पाते, हमारे लिए तो यह नौ दिनों तक लगातार चलने वाला मेला ही था। ...और मेरा विशेष सौभाग्य कि गायत्री महायज्ञ का आयोजन स्थल मेरे घर से महज 100-150 मीटर की दूरी पर था, सो मां से 10-20 पैसे मांग लेता और दौड़ते हुए मेले में पहुंच जाता। हां, मौनी बाबा से मिले पेड़े का अद्भुत स्वाद करीब चार दशक बाद भी नहीं भूल पाया हूं। पुण्य अर्जित करने के नाम पर तो जहां तक याद कर पाता हूं, अपार जनसमूह के बीच दादी और चाची के साथ यज्ञशाला की परिक्रमा जरूर की थी।
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