Saturday, August 22, 2020

आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे...

आजु मंगल के दिनवां शुभे हो शुभे...

आजकल छोटे-बड़े, अमीर-गरीब हर किसी की तमन्ना होती है कि हमारा बच्चा भी अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करे। "प्रातकाल उठि के रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा।।" की तरह पैर भले मत छुए, लेकिन देर सवेर जगने के बाद गुड मॉर्निंग जरूर बोले। यही वजह है कि कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खुद का वर्तमान दांव पर लगा देते हैं। मगर अफसोस इन स्कूलों में बच्चों को अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान ही मिल पाता है और हिंदी का उनका ज्ञान...उसके बारे में तो क्या बताऊं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रधान राज्यों के लाखों बच्चे दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मातृभाषा हिंदी में ही फेल हो जाते हैं।

...तो मैं कहना चाह रहा था कि आजकल बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत ए फॉर एपल, बी फॉर बैट से होती है। खुशी की बात है कि अधिकतर बच्चों को खाने के लिए एपल और खेलने के लिए बैट मिल भी जाता है, इसलिए वे एपल और बैट के निहितार्थ भी समझ सकते हैं, लेकिन आज से करीब 40-45 साल पहले जब हमारी पढ़ाई शुरू हुई थी, तब बच्चों के लिए क्रिकेट के बारे में सोचना भी मुश्किल था, खेलने की तो बात ही छोड़ दें। हर अभ‌ि‍भावक के लिए बच्चे को सेब के दर्शन कराना भी संभव नहीं था। सेब को अंग्रेजी में एपल भी कहते हैं, इसका ज्ञान हमें छठी कक्षा में जाने पर हुआ था। क्योंकि उस जमाने में मिडिल स्कूल में जाने पर छठी कक्षा से ही अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई शुरू होती थी। वह तो कमाल था गांव के म‌िडिल स्कूल के शिक्षक परमादरणीय महेश ठाकुर जी और पातेपुर हाई स्कूल में अंग्रेजी के स्वनामधन्य शिक्षक श्रद्धेय सोनेलाल बाबू का, जिन्होंने देर से शुरुआत के बावजूद कई पीढ़ियों को अंग्रेजी पढ़ने-समझने लायक बना दिया। 

अस्तु, हमारे जमाने में सामान्य परिवार के बच्चों के लिए आम, अमरूद, अनार आसानी से उपलब्ध थे और पढ़ाई की शुरुआत हिंदी के अक्षर ज्ञान से ही होती थी सो हमने सबसे पहले अ से अनार और आ से आम ही पढ़ा। उस जमाने में 25 पैसे की मनोहर पोथी आती थी। 25-30 पेज की वह छोटी सी पोथी कितनी मनोहर थी, इसका तो अहसास नहीं, मगर हिंदी की संपूर्ण वर्णमाला, ककहरा से लेकर बारह खड़ी, अक्षरों से शब्द बनाना, 1 से लेकर 100 तक गिनती और 20 तक का पहाड़ा हमने उसी से सीखा। 

हमारे साथ के बच्चों ने संडे-मंडे से पहले सोमवार, मंगलवार और जनवरी-फरवरी से पहले चैत-वैशाख ही सीखा था। किफायत में जीने वाले गांव वालों की ज‌िंदगी में किफायत हर कहीं पैबस्त हो जाती है। ऐसे में बोलचाल में भी किफायत की आदत सी हो जाती है और वे सोमवार को सोम, मंगलवार को मंगल कहने लगते हैं। बचपन के दिनों से ही शादी-विवाह के गीत मुझे आकर्षित करते रहे हैं। हमारे यहां ऐसे अवसरों पर एक गीत बड़ा ही कॉमन है- आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे... तो यदि मंगलवार को शादी-विवाह का आयोजन होता तब तो बात समझ में आती, लेकिन किसी दूसरे दिन ऐसे आयोजनों में "मंगल के दिनमा..." से ऊहापोह में पड़ जाता कि बुधवार, शुक्रवार या रविवार को "मंगल के दिनमा" कैसे हो गया। तब इस तथ्य से बिल्कुल अनजान था कि मंगल महज एक दिन का ही नाम नहीं, बल्कि मांगलिक आयोजन का भी द्योतक है।

परिवार में धार्मिक माहौल होने से एकादशी, पूर्णिमा आदि की अक्सर चर्चा होती थी। खासकर एकादशी के पारण के मुहूर्त के अनुसार समय की सटीक जानकारी के लिए पड़ोस में किसी घड़ी वाले के पास जाना पड़ता था। सो एकादशी के बारे में तो काफी कम उम्र में ही समझ गया था, मगर आस-पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर क्षौरकर्म के बाद ग्यारहवें-बारहवें दिन को एकादशा-द्वादशा कहे जाने से मैं असमंजस में पड़ जाता। और संयोग से यह एकादशा-द्वादशा यद‌ि एकादशी के दिन या उसके तत्काल बाद आता तो मेरा बाल मन महज "ई" की मात्रा के "आ" में बदल जाने से इसके मायने में आए बदलाव को लेकर उलझन में पड़ जाता। हमारे यहां वर्षा को बरखा कहने का भी चलन है। यहां तक तो ठीक था, लेकिन किसी की मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने पर जब बरखी का आयोजन होता, उस समय भी "आ" और "ई" की मात्रा को लेकर मैं दुविधा में पड़ जाया करता था।

गांवों के लोगों में अपनापन की भावना अपेक्षाकृत अधिक प्रगाढ़ होती है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। खासकर किसी के निधन की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शनों के लिए कदम सहज ही बढ़ जाया करते हैं। ऐसे में कई बार कई बार मैं भी परिवार के किसी बुजुर्ग के साथ हो लेता। आज से चार दशक पहले गांव में न तो डॉक्टर होते थे और न पास के कस्बे या शहर से उन्हें बुलाने की व्यवस्था थी, जो किसी की मृत्यु की पुष्टि करे। ऐसे में गांव में प्रैक्टिस करने वाले क्वेक ही मरणासन्न व्यक्ति को देखकर उसकी मृत्यु की घोषणा कर देते थे। कई बार टोले-मोहल्ले के कुछ विशेष पढ़े-लिखे तथाकथित "समझदार" यह दायित्व निभाते थे। वह मरणासन्न व्यक्ति की कलाई पकड़कर कुछ महसूस करने की कोशिश करते और फिर घोषणा कर देते- खतम हई खेल...नाड़ी कट गेलई। यह सुनकर मुझे बड़ा अचरज होता था कि कलाई से खून तो निकल नहीं रहा, फिर नाड़ी कैसे कट गई...
आज सुबह एक भाभी से बात की तो उन्होंने गांव में इस साल वर्षा के बजाय बरखा शब्द का इस्तेमाल किया तो बचपन की यादें बरबस ही स्मृति पटल पर हलचल मचाने लगीं तो मैंने इन्हें फेसबुक की दीवार पर टांग देना ही उचित समझा।  

1 comment:

galliajacy said...

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