बाबू आउटडेटेड हुए, ईया हुईं इतिहास
दीदी की जब शादी हुई, तब मैं आठ-नौ साल का था। दीदी का मेरे प्रति अत्यधिक स्नेह भाव मुझे बार-बार उससे मिलने के लिए विवश करता था, मगर अकेले बच्चे को भेजना मुश्किल, उसे साथ कौन लेकर जाए, सो मन मारकर रह जाता। हालांकि थोड़े समय बाद ही बालमन फिर मचलने लगता, तो मां के माध्यम से दुबारा बाबूजी की अदालत में अर्जी डाल दी जाती। आस-पड़ोस के कई अन्य परिवारों की रिश्तेदारी भी दीदी की ससुराल वाले गांव में थी। सो यदि उनमें से कोई वहां जाने वाला होता तो जरूरी हिदायतें देकर मुझे भी उनके साथ कर दिया जाता। मुझे तो मानों मुंहमांगी मुराद मिल जाती। मेरे पहुंचते ही दीदी का चेहरा भी खिल उठता। फिर वहां से मेरे लौटने के लिए भी ऐसे ही किसी जुगाड़ की तलाश की जाती और तब तक मुझे दीदी के पास रहने का मौका मिल जाता।
एक दिन दीदी के यहां बैठा था कि कई मजदूर महिलाएं खेत से मूंग की छीमी तोड़कर लाईं और अपनी-अपनी टोकरी कतार से लगाकर रख दी। तब मजदूरी में पैसे देने का चलन नहीं था। जिस फसल का काम होता, उसी में से कुछ हिस्सा बतौर मजदूरी दे दिया जाता था। उन्हीं महिला मजदूरों में से एक मॉनीटर की तरह एक-एक का नाम पुकारती। जिसका नाम पुकारा जाता वह अपनी टोकरी लेकर आगे आती। दीदी के ससुर तोड़ी हुई मूंग की छीमी का आकलन कर उसकी मजदूरी के बदले मूंग की छीमी उसकी टोकरी में छोड़कर बाकी अपनी ढेरी पर रख लेते। मेरे लिए यह सब नई बात नहीं थी। हमारे गांव में भी यह सब आम था।
आज से 35-40 साल पहले बिहार के वैशाली और आसपास के जिलों में महिलाओं की पहचान उनके मायके या बड़ी संतान के नाम से होती थी। तब हमारे यहां मां को "माय" कहने का चलन था। सो उन्हें पुकारा जाता - रमबतिया माय, संतिया माय या फिर अमरितपुर वाली, सरसौना वाली। मगर दीदी की ससुराल में मॉनीटर बनी महिला अपनी साथी मजदूरों को उसकी बच्चे की "माय" की जगह "मतारी" शब्द बोल रही थी। यह सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगता था। शायद इसीलिए कहते हैं कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी।
आज तो शहरी कल्चर ने इस कदर गांवों में सेंधमारी कर दी है कि शब्दों का सोंधापन ही खो गया है। मेरे बाद की पीढ़ी ने मां को माय की जगह मम्मी कहना शुरू कर दिया था और अब तो मम्मी शब्द से स्त्रीबोधक "ई" ध्वनि की भी विदाई कर दी गई। बच्चे मां को मम्मा कहने लगे हैं। वहीं, हमारे जमाने में बच्चे पिता को बाबू कहते थे। लड़कियां शादी के बाद माता-पिता-घर-परिवार छोड़कर भले ही ससुराल आ जाती हैं, लेकिन मायके के संस्कार को सहेजकर लाना नहीं भूलतीं। मेरी मां और मौसी-मामू मेरे नानाजी को बाबूजी कहकर बुलाते थे, शायद इसीलिए हम भाई-बहन भी अपने पिता को बाबूजी कहना सीख गए, लेकिन चाचाओं को बड़का बाबू और छोटका बाबू ही कहते थे। अफसोस, आजकल तो गांवों में बच्चे पिता को बाबू क्या, बाबूजी कहने में भी शर्म और पापा व डैडी कहने में शान महसूस करते हैं। हां, नई पीढ़ी अपने बच्चों को "बउआ" के बदले "बाबू" जरूर कहने लगी है।
एक और बात याद आती है। हमारी एक चाची को उनके बच्चे "ईया" कहकर बुलाते थे, सो हमलोग भी उन्हें "ईया" ही कहते थे। संभव है वो चाची अपनी मां को ईया कहती रही हों और मायके से उनके साथ चलकर यह शब्द हमारे घर तक भी पहुंच गया हो। बरसों पहले इस दुनिया से ईया की रुखसती के साथ ही यह शब्द भी इतिहास बनकर रह गया। तब दादा को "आजा" और दादी को "आजी" भी कहते थे। हालांकि किसी को इन संबोधनों से अपने दादा-दादी को पुकारते हुए तो मैंने नहीं सुना, लेकिन कई बुजुर्ग महिलाओं के मुंह से किसी दूसरे के दादा-दादी के लिए आजा-आजी शब्द का जिक्र करते जरूर सुनता था।
उस जमाने में कोई विशेष वस्तु भी किसी व्यक्ति की पहचान बन जाया करती थी। दफादार रहे मेरे एक बाबा लाठी टेकते हमारे घर के पास चौक पर आते थे। सो हम उन्हें "लाठी बाबा" कहकर पुकारते थे। इसी तरह हमारी पट्टीदारी के एक चाचा शिक्षक थे। उनका स्कूल अपेक्षाकृत अधिक दूर था। तो शायद अपने परिवार में उन्होंने ही सबसे पहले साइकिल खरीदी, इसलिए बच्चों ने उनका नाम "साइकिल बाबा" रख दिया। इसी तरह परिवार में सबसे छोटे चाचा को पहले "लाल चाचा" और सबसे छोटी चाची को "कनिया चाची" कहते थे। ये संबोधन भी अब यादों में ही जिंदा हैं। ऐसे ही बहुएं अपनी सास को "सरकारजी' कहती थीं। हमारे देखते ही देखते सासू मां के लिए बहुओं का संबोधन "अम्माजी" से होता हुआ अब "मम्मीजी" तक पहुंच चुका है।
लंबे अंतराल के बाद किशनगंज से सुबह एक बिटिया ने फोन किया। उसका नंबर मेरे मोबाइल में सेव नहीं था। सो परिचय पूछने पर जब उसने मुझे मोहन काकू कहा तो 1991 से 1994 तक किशनगंज में बिताए सुनहरे दिनों की मीठी यादों के साथ ही बरसों पुराने ये संबोधन जेहन में सरगोशियां करने लगे। वरना आज तो भाई और दोस्तों के बच्चों की कौन कहे, बहनों और साले-सालियों के बच्चे भी मामा और फूफा-मौसा के बजाय अंकल ही बोलने लगे हैं।
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