दादीजी से मिलने कभी-कभार एक बूढ़ी अम्मा आया करती थीं। आज से करीब चार दशक पहले हमारे गांव में न तो चाय का चलन था और न ही आज जैसी औपचारिक आवभगत की जरूरत। दादीजी हुक्का पीती थीं, सो बूढ़ी अम्मा के आने पर हुक्के के लिए आग की चिंगारियां लाने के लिए कहतीं। जब मैं चिंगारियां लेकर आता और बूढ़ी अम्मा के पैर छूता तो वे अपने सफेद बालों में से दो-चार बाल नोचकर मेरे सिर पर रख देतीं और कहतीं-लखिया हो। अक्षर ज्ञान से अनजान, मगर व्यावहारिक ज्ञान से परिपूर्ण इन वृद्धाओं की गिनती बीस से आगे नहीं बढ़ पाती थी। दैनंदिन जीवन में कोई वस्तु जब बीस से अधिक हो जाती तो वे एक बीस, दो बीस के हिसाब से गिनती आगे बढातीं। लेकिन ममता और आशीर्वाद का खजाना लुटाने में वे किसी सीमा का ध्यान नहीं रखती थीं। उनके आशीर्वाद का आशय लाख वर्ष की उम्र से होता था।
ऐसी ही एक दूसरी दादीजी मेरे किशोरावस्था के दौरान आशीर्वाद देतीं-भगवान जल्दी तुम्हें एक रोटपकाई (भोजन पकाने वाली पत्नी) दें। मगर, अफसोस, केवल आशीर्वाद से कुछ नहीं होता। खुद का प्रारब्ध भी तो कोई चीज होती है। तभी तो मेरे किसी साथी की मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद रिजल्ट आने से पहले ही शादी हो गई तो कोई इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन करते-करते एक से दो हो गया। वहीं मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी कई वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। आखिरकार जब अपना भी नंबर आ ही गया तो राज खुला कि पत्नी केवल रोटी ही नहीं पकाती, अपने पर आ जाए तो दिमाग भी पकाती है। यही नहीं, मूड बना ले तो पति को पानी पिलाने में भी पीछे नहीं रहतीं।
कई साल जयपुर में साथ-साथ रहने के बाद पिंकसिटी में पत्नी को छोड़कर लखनऊ में लोनली रहने लगा तो पता चला कि शहरों में पानी एक निश्चित समय में आता है। और शायद इसीलिए शहर के लोगों की आंखों में गांव वालों की तुलना में पानी थोड़ा कम हुआ करता है। सो साहब, अखबार की नौकरी में रात ढाई-तीन बजे दफ्तर से लौटने के बाद चार बजे तक सोना हो पाता है और न चाहते हुए भी पानी भरने के लिए बेमन से ही नहीं छह से सात बजे तक उठना ही पड़ता है।
ऐसे ही कल सुबह पानी भरने के बाद सो गया था। जैसे ही आंख लगी थी कि मोबाइल की घंटी बजी। दूसरी तरफ से पूछा गया-सुरेंद्र? मैंने रॉन्ग नंबर की बात कहकर उसे मना कर दिया और सो गया। कच्ची नींद खुलने के बाद बेचैनी की पीड़ा के कभी न कभी आप सभी भुक्तभोगी रहे हैं, उसका जिक्र करना क्या? 15-20 मिनट तक करवटें बदलने के बाद दुबारा नींद आई ही थी कि फिर मोबाइल की घंटी बजी। उठाया तो आवाज आई- विकास से बात करा दो। मैंने कहा-विकास तो पुलिस के एनकाउंटर में मर गया। जाने अब तक कहां से कहां पहुंच गया होगा। कैसे बात कराऊं? फोन करने वाले ने कहा, मैं कानपुर वाले विकास दुबे की बात नहीं कर रहा। मैंने कहा, मैं तो पिछले कई दिनों से चहुंओर बस एक ही विकास का नाम देख-सुन रहा हूं। उसने कहा, समझने की कोशिश करो, मैं विकास दुबे की नहीं, विकास यादव से बात कराने के लिए कह रहा हूं। अब तक मेरी नींद काफूर हो चुकी थी। मैंने कहा-भलेमानस, कहां से बोल रहे हो? उसने कहा- अलीगढ़ के सिकंदरपुर से। विकास यादव से जरूरी बात करनी है। मैंने कहा, जाओ, आंख-मुंह धोकर ठंडा पानी पीओ और फिर अच्छे से नंबर देखकर दुबारा फोन मिलाओ। ...और इस तरह उससे विदा लेने के बाद मैंने सोचा कि नींद तो इसने उड़ा ही दी। अब मैं भी कुछ नाश्ता-पानी का जुगाड़ करूं।
इससे याद आया। 14-15 साल की बात है। दोपहर में खाना खाकर सोया था कि किसी महिला का फोन आया। श्रीमती ने फोन उठाया तो उधर से कोई महिला जीजाजी से बात कराने के लिए कह रही थी। अब किसी पुरुष के जीजाजी होने की तस्दीक पत्नी से बेहतर कौन कर सकता है। सो श्रीमती जी ने रॉन्ग नंबर कहकर मना कर दिया। लेकिन दुबारा-तिबारा वह रिंग करती रही और श्रीमती जी बार-बार मना करती रहीं। इस दौरान झल्लाहट की वजह से श्रीमती जी की आवाज का वॉल्यूम बढ़ जाने के कारण मेरी भी नींद खुल गई। पूछने के बाद माजरा समझ में आता तब तक फिर मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैंने खुद कॉल रिसीव कर समझाने की कोशिश करनी चाही तो वह दक्षिण भारतीय महिला टूटी-फूटी हिंदी में मुझे ही कहने लगी, जीजाजी, आप झूठ बोल रहे हो। फोन ही नहीं उठाते हो। बात नहीं करना चाहते। क्या बताऊं साहब, कैसे पिंड छुड़ा पाया। स्मार्ट फोन आने के बाद ट्रू कॉलर की सुविधा होने के बाद कॉल करने के बारे में पता चल जाता है, लेकिन क्या बताऊं, फीचर फोन से अपना पुराना नाता है और बात करने के लिए अमूमन मैं उसे ही उपयोग में लेता हूं। संयोग ही कहें कि आज ही अमर उजाला में खबर देखी-स्मार्टफोन में जल्द बदल जाएंगे सभी फीचर फोन...तो उम्मीद जगी कि शायद आने वाले दिनों में रॉन्ग नंबर की परेशानी खत्म हो जाए...मगर अफसोस इसके साथ वर्षों से हमारा साथ निभा रहा फीचर फोन भी पेजर और टेलीग्राम की तरह अतीत की बात बन जाएगा।
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