उत्सव के बहाने, बहाने से उत्सव
गांव का जीवन यदि कठिनाइयों के खारेपन के समंदर जैसा होता है, तो वहां रहने वाले लोगों के मन में उन कठिनाइयों से पार पाने का जीवट भी पहाड़ सा विशाल होता है। परेशानियों से अशांत मन कहीं "सुशांत" न हो जाए, इसलिए उत्सवप्रियता को वह अपने स्वभाव में सहेज लेता है। बात-बेबात में उत्सव की खुशियां अपने चारों ओर संजो लेता है।
शादी-विवाह में दर्जनों रस्मों से उसका मन नहीं भरता। बहू पहली बार खाना बनाती है तो परिवार में एक बार फिर से उत्सव का माहौल उत्पन्न हो जाता है। इसके कुछ महीनों बाद बच्चे के जन्म का उत्सव, बच्चे के पहली बार अन्न ग्रहण करने पर अन्नप्राशन उत्सव, अक्षर आरंभ करने पर विद्यारंभ संस्कार का उत्सव, उपनयन-यज्ञोपवीत संस्कार का उत्सव...एक लंबी शृंखला का सिलसिला यूं ही अनवरत चलता रहता है।
खेतीबाड़ी-बागवानी-पशुपालन की वजह से गांवों के लोग प्रकृति से सीधे जुड़े होते हैं। मौसम के विभिन्न रंग अपनी अनुकूलता से उसके जीवन में खुशियों के रंग भर देते हैं। ...और इसमें भी बरसात के मौसम पर तो उसका सब कुछ निर्भर रहता है। साल के 365 दिन में 27 नक्षत्र अपनी-अपनी भौगोलिक दशा के हिसाब से मानव मात्र को प्रभावित करते हैं, मगर इन नक्षत्रों में आर्द्रा (जिसका अपभ्रंश गांव में अदरा अधिक प्रचलित है।) बारिश की पहली बूंदों का उपहार लेकर आता है। वैशाख-जेठ की भीषण गर्मी से राहत मिलती है तो इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए गांवों में आर्द्रा के आगमन के सुअवसर को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा बना ली गई। ...और गांव में उत्सव का मतलब खीर...सो खीर बना-खाकर मोद मनाते हैं। मेरे बाबूजी का तो नियम था कि शाम को मृगशिरा नक्षत्र का दूध संजोकर रख लिया जाए और अगले दिन आर्द्रा नक्षत्र के प्रवेश पर उसी दूध में खीर बनाई जाए।
जहां तक घड़ी पर्व और अदरा का उत्सव मनाने की बात है तो दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं। मसलन घड़ी पर्व आषाढ़ या सावन के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है, वहीं अदरा मनाने के लिए शुक्ल पक्ष की कोई बाध्यता नहीं होती। घड़ी पर्व आषाढ़ और सावन में मनाया जाता है, वहीं दोमास होने के कारण आर्द्रा नक्षत्र कई बार जेठ महीने में भी आ जाता है। घड़ी पर्व अक्सर दिन के तीसरे पहर में मनाया जाता है, जब कुलदेवता को खीर-पूड़ी चढ़ाने के बाद परिवार के लोग प्रसादस्वरूप उसे ग्रहण करते हैं, वहीं अदरा में न तो सुबह, शाम और रात के रूप में समय का बंधन होता है, न ही कुलदेवता को चढ़ाने की बाध्यता।
"खेतों में रोपते खुशियां, घरों में मनता घड़ी पर्व" शीर्षक पोस्ट पर कुछ गुरुजनों ने इसे अदरा मनाने के रूप में व्याख्यायित किया था। ऐसे में इस बारीक अंतर को रेखांकित करने की धृष्टता के लिए सादर क्षमाप्रार्थी हूं। किसी शायर के शब्दों को उधार लूं
नजर उठा के बड़ों को कभी नहीं देखा
हम आसमान को पानी में देख लेते हैं।
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