झूला लगे आम की डाली
मानव मन सदा कल्पनाओं के झूले पर सवार रहता है, ऐसे में उसे अपने अंदर संजोकर रखने वाले शरीर को भी तो झूलने का कोई अवसर चाहिए ही। शायद इसीलिए झूले की ईजाद की गई। द्वापर युग से जुड़ी कथाओं में सावन में गोपियों संग श्रीकृष्ण के झूला झूलने का उल्लेख है। शायद इसीलिए आज भी वृंदावन के साथ ही देशभर में भगवान श्री कृष्ण के मंदिरों में सावन महीने में झूला महोत्सव मनाया जाता है। वहीं कई राज्यों में नवयुवतियां विवाह के बाद पहले सावन में ससुराल में नहीं रहती हैं। मगर प्रेम में पगे दिल को परंपराओं के बंधन कहां सुहाते हैं। मायके में आने के बाद सावन की फुहारों के बावजूद विरह की आग नहीं बुझती हैं तो वे सहेलियों के साथ बगीचे में कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं।
वहीं बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव में भादो महीने में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर झूला झूलने का चलन है। गांव के पश्चिम में होने के कारण हमारे टोला को पछियारी टोला कहते हैं। कभी यहां आम के काफी बगीचे थे, इसलिए हमारे टोले को गाछी टोला भी कहा जाता था। हालांकि उतने अधिक बगीचे तो मैंने नहीं देखे, लेकिन हमारे दरवाजे के सामने ही आम का बहुत बड़ा बगीचा था। घर के आस-पड़ोस में भी आम के कई पेड़ थे। जन्माष्टमी पर इन्हीं पेड़ों पर झूला लगाए जाते।
हफ्ता भर पहले ही सावन पूर्णिमा पर राखी बंधवाते समय बहनों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुजरने का वादा करने वाले भाइयों के लिए जन्माष्टमी का त्योहार बहनों पर इम्प्रेशन जमाने का भी अवसर होता था। ऐसे में नौजवान दो दिन पहले से ही झूला लगाने की तैयारी में जुट जाते थे। बांस और ताड़ का छज्जा काटकर लाते और उसे तराशा जाता। झूला के लिए दो तरफ से दो बांस लगाए जाते और ताड़ के छज्जे के डमखो (डंठल) को कूंचकर बांस के ऊपरी सिरे को उससे बांधकर आम के पेड़ पर काफी ऊंचाई पर लटकाया जाता। ...और नीचे बांस के दोनों सिरों में ताड़ के डमखो को कूंचकर उसमें हेंगा (पाटा) को बीच में फंसाया जाता। कई बार ताड़ के डमखो के स्थान पर साइकिल के पुराने टायर का भी इस्तेमाल किया जाता था। एल्यूमिनियम के तारों से इनको बड़ी मजबूती से बांधा जाता था।
जन्माष्टमी के दिन तड़के ही झूला झूलने का दौर शुरू हो जाता था। बड़ी लड़कियां अपनी सहेलियों के साथ झूले पर जब दोनों छोर से मचक्का (पींगें ) मारतीं तो झूला आकाश से बात करने लगता। पर्दा प्रथा के कारण परिवार की बहुओं का बाहर निकलना संभव नहीं था, सो कई नवविवाहित बहुएं अपनी ननदों की खुशामद कर पौ फटने से पहले झूले का आनंद लेतीं। वहीं, जिन बहुओं का नंबर नहीं आ पाता और यदि झूला दिन भर अनवरत सेवाएं देने के बाद भी सलामत बच जाता तो वे शाम के धुंधलके में अपने अरमान पूरे करतीं। इस तरह वे ससुराल में रहकर भी अपने मायके की स्वच्छंदता को जी लेती थीं।
हम बच्चों के लिए उस झूले का लुत्फ उठाना खतरे से खाली नहीं था, सो हमें उस पर झूलने की इजाजत नहीं थी। मगर भावनाएं तो हमारे भी हृदय में हिलोरें लेती रहती थीं, सो हमारी बाल मंडली खेत में हेंगा (पाटा) को बांधने के काम में आने वाली बरही और पीढ़ा लेकर गाछी में चले जाते और अपेक्षाकृत कम ऊंजाई वाली आम के पेड़ की डाली पर रस्सी डालते हुए उस पर पीढ़ा फंसाकर झूले का रूप देते। इसके बाद तलाश की जाती एक चींटी की, जिसे सबसे पहले झूला झुलाया जाता। साथ में हम बच्चे समवेत स्वर में गाते-
तोरा मायो न झुललकऊ, तोरा बापो न झुललकऊ, तोरा हमहि झुललिअऊ...
अर्थात तुम्हें मां ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें पिता ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें हम ही झुला रहे हैं। यह एक तरह का टोटका भी था कि जब हम झूलें तो उस दौरान रस्सी न टूटे।
सरगही का सुपर क्रेज
भगवान कृष्ण की महिमा के बारे में तो बड़े-बड़े विद्वान नहीं जान पाए तो हम बच्चे क्या समझ पाते, लेकिन परिवार के बड़े लोगों की देखा-देखी हम भी जन्माष्टमी पर उपवास रखते थे। हर घड़ी जिन बच्चों का मुंह चलता ही रहता है, वे दिन भर भूखे कैसे रहेंगे, इसे देखते हुए मां तीन-चार दिन पहले से ही पर्याप्त व्यवस्था कर लेती थी। जन्माष्टमी के दिन तड़के साढ़े तीन-चार बजे हम बच्चों को जगाकर चिवड़ा-दही-केला आदि खिला दिया जाता। भोर के इस भोजन को हमारे यहां सरगही कहा जाता है। सरगही के बाद उपवास शुरू हो जाता। बाल मंडली को दिन में एकाध बार शरबत पीने की छूट भी मिल जाती थी।
भगवान कृष्ण के नाम पर उपवास किया जाता था, सो कुछ भक्ति भाव का होना भी जरूरी था। कृष्ण भगवान का कोई मंदिर हमारे आसपास नहीं था, सो दोपहर में हम नहा-धोकर शिव मंदिर जाते और भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करते।
पंगत में फलाहार
ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म आधी रात में हुआ था, सो परिवार के बड़े लोग तो रात के 12 बजे घरों में ही श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के बाद व्रत का पारायण करते, वहीं कुछ लोग सुबह में ही व्रत खोलते, लेकिन बच्चों के लिए इतना लंबा अंतराल...आधी रात तक कैसे जगे रहते और अगर बच्चे सो जाएं तो उन्हें जगाना और भी मुश्किल। सो बीच का रास्ता निकालते हुए बच्चों को फलाहार की छूट दे दी जाती थी। सूर्यास्त होने के बाद आंगन में बच्चों की पंगत लगती और हम सभी दूध-केला, साबूदाना की खीर, आम, अमरूद आदि का भोग लगाते।
चलते-चलते
बदलते हुए समय के साथ सब कुछ महज पुराने दिनों की यादें बनकर रह गई हैं। अब न तो वे आम के पेड़ रहे और न झूला लगाने का वह उत्साह ही बचा। मगर झूला झूलने का मोह तो नई पीढ़ी के बच्चों में भी बरकरार है, सो छत की कड़ी में रस्सी बांधकर वे दो-चार पींगें भर लेते हैं। ...एक बात और। बचपन से ही देखता आया हूं कि जन्माष्टमी दो दिन होती है। इस बार भी कुछ वैसा ही रहा। लखनऊ में आज जन्माष्टमी है, जबकि बिहार में कई स्थानों पर मंगलवार को ही जन्माष्टमी मना ली गई। मुजफ्फरपुर से एक दोस्त ने जन्माष्टमी पर छत की कड़ी से बंधी रस्सी पर झूलते बच्चे का वीडियो शेयर किया तो बरबस ही बचपन के दिनों की यादें ताजा हो आईं।
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