माटी का धन, सोने-सा मन
पहले के जमाने में अधिकतर लोगों के घर फूस के बने होते थे। इसे बनाने में लगी सभी चीजें बांस, खड़, इंकड़ी-कांड़ा ( सरकंडा), मूंज अपने या अपनों के खेत की होती थीं। दरअसल तब लोगों के पास अपनी कहलाने वाली और सबसे अधिक उपलब्ध वस्तु अपना खेत और उसकी माटी ही हुआ करती थी। वहीं, समाज में लेन-देन का अधिकतर व्यवहार परस्पर सहयोग और वस्तु-विनिमय प्रणाली पर ही आधारित था। यानी एक व्यक्ति के पास जो वस्तु होती, वह किसी और को देकर उससे अपनी जरूरत की दूसरी वस्तु ले ली जाती। यहां तक कि मजदूरी के बदले भी अनाज देने का ही चलन था। नकदी के नाम पर रुपये की कौन कहे, पैसे भी बहुत दूर की कौड़ी थी।
कुछ लोगों के घरों की दीवारें मिट्टी की भी होती थीं, जो औरों के मुकाबले उनकी अधिक संपन्नता का भी परिचायक होती थीं। जिनके पास अपने खेत नहीं होते, वे पड़ोसियों की खेत से माटी ले लिया करते थे। तब समाज में आपसी सहकार की भावना भी प्रबल हुआ करती थी। मसलन टोले-मोहल्ले के सभी लोग एक साथ किसी एक के घर की मिट्टी की दीवारें खड़ी करते। उसका काम पूरा होने के बाद यही प्रक्रिया दूसरे घर के निर्माण में अपनाई जाती। …और इस तरह पूरा घर बन जाता।
इक्के-दुक्के विशिष्ट लोगों के मकान ईंट से भी बने होते थे। हालांकि तब ईंट भी नकद रुपये देकर खरीदने की स्थिति कहां हुआ करती थी। लोग खुद का ही भट्ठा लगाते, जिसमें अपने ही खेत की मिट्टी से ईंटें पथवाई जातीं। हालांकि पक्की ईंटें होने के बाद भी लोगों का मिट्टी से मोह खत्म नहीं हो पाता था। तभी तो दीवारों के लिए ईंटों की चिनाई मिट्टी को गीला कर उससे ही की जाती थी। दीवारें चाहे मिट्टी की हों या ईंट की, अधिकतर मकानों के ऊपर छप्पर ही हुआ करता था। ...और जिन इक्के-दुक्के मकानों की छत होती तो वह भी लकड़ी के बीम और शहतीर के सहारे अपेक्षाकृत कम पतली ईंटों से बनाई जाती थी। तब आज की तरह गिट्टी-बालू-सीमेंट-सरिया का इस्तेमाल कर आरसीसी तकनीक से छत ढालने का चलन शुरू नहीं हो पाया था।
...और इन घरों की दीवारें बीस-तीस इंच तक मोटी हुआ करती थीं। मगर इतनी मोटी दीवारें होने के बावजूद इनमें रहने वालों के कान बहुत पतले होते थे। वे पड़ोस में रहने वाले की छोटी से छोटी परेशानी को भी जान लेते थे और उसके समाधान के लिए बिना कुछ कहे ही आगे आ जाते थे। एक-दूसरे की खुशियां भी सभी के लिए साझा हुआ करती थीं। बच्चों के लिए आस-पड़ोस से लेकर दोस्त विशेष तक के घर अपने घर से बढ़कर हुआ करते थे। जहां जब मन हुआ, जी भरकर खा लिया। यहां तक कि तेज धूप होने पर मित्र की मां के आंचल की छांव में सो भी जाया करते थे। यही कारण था कि कभी कोई महिला अपने बच्चे को लेकर चिंतित नहीं होती थी। अफसोस...आज तो अपने घर में हारी-बीमारी या गमी-मुसीबत में कोई अगर उसके बच्चों को दो-चार दिन खिला भी दे तो उम्र भर अहसान जताने के अलावा ताने मारने से भी बाज नहीं आती।
... प्रकृति में घुली अनुपम सुगंध
कुम्हार जब आवा में मिट्टी के बर्तन या फिर खपड़े पकाते तो उससे निकलने वाले धुएं की सुगंध से मन आह्लादित हो उठता। ऐसे ही ईंट पकाने के लिए भट्ठा में आग लगाए जाने के बाद उससे निकलने वाले धुएं की विशिष्ट सुगंध से पूरा माहौल कई दिनों तक मह-मह करता रहता। मानों किसी यज्ञ की अग्नि में डाली गई समिधा की सुगंध उसके पावन उद्देश्य का अहसास करा रही हो।
मिट्टी और आग के मिलन का उत्सव
गांव के लोग आनंद मनाने के लिए किसी उत्सव विशेष का इंतजार नहीं करते, बल्कि खुद ही उत्सव के अवसर बना लिया करते हैं। ईंट पकाने के लिए भट्ठा फूंकने का मौका भी ऐसे ही मानों अग्निदेव की आराधना का उत्सव हुआ करता था। ...और उत्सव के पल में अपनों के साथ भोजन तो लाजिमी है ही। बाबूजी के साथ उनके एक सहयोगी मित्र के यहां ऐसे ही अवसर पर भात-दाल के सामान्य भोजन का विशेष स्वाद 35-40 साल बाद भी भूल नहीं पाया हूं।
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