Thursday, July 23, 2020

आम की गुठली से निकलती मीठी तान

प्रकृति की लीला अपरंपार है। प्रकृति हमारी जरूरतों का न केवल ध्यान रखती है, बल्कि उन्हें पूरा भी करती है। तभी तो वैशाख-ज्येष्ठ में सूर्य का ताप जब हमारे लिए संताप का सबब बन जाता है, तो प्रकृति फलों के राजा आम का वरदान हमारी झोली में डाल देती है। जानलेवा लू से बचाव के लिए कच्चे आम को पकाकर उससे बने पना के ठेले जगह-जगह सड़कों के किनारे नजर आने लगते हैं। ..और फिर समय बीतने के साथ देखते ही देखते कुछ ही दिनों में आम हमारे जीवन में मिठास का अमृत घोलने के लिए हाजिर हो जाता है।

फिर तो आषाढ़-सावन की कौन कहे, भादो तक लोग आम की विभिन्न प्रजातियों का जमकर लुत्फ उठाते हैं। यही नहीं, इस मिठास को आम के सीजन के बाद भी संजोए रखने के लिए अमौट (मैंगो केक) भी बनाया जाता है। आजकल तो अत्याधुनिक तकनीक से बने मैंगो ड्रिंक और मैंगो जूस सालभर उपलब्ध रहते हैं। मगर अफसोस, मानव-मन मिठास की एकरसता से भी ऊब जाता है। ऐसे में चटपटी चटखार से भरपूर आम का अचार साल दर साल हमारे भोजन की थाली की शोभा बढ़ाता है। कहते हैं कि जितना पुराना अचार हो, उतना ही अधिक स्वादिष्ट होता है।

अस्तु, शहरों में तो लोग बस आम की मिठास से ही मतलब रखते हैं। आम का छिलका और गुठली उनके कचरापात्र का पेट भरती है। मगर गांवों में आदमी की बेकारी के अलावा और कुछ भी बेकार नहीं होता। वहां हर वस्तु की अपनी उपयोगिता होती है। गांवों में आम का छिलका पशुओं को खिला दिया जाता है तथा आने वाली पीढ़ियां भी आम की मिठास का लुत्फ उठा सकें, इसके लिए गुठलियां धरती मां को सौंप दी जाती हैं। धरती माता की गोद में ये गुठलियां जीवन पाकर धन्य हो जाती हैं।

हमारे गृहराज्य बिहार के वैशाली समेत आस-पड़ोस के जिलों में आम की गुठली से निकले पौधे को "अमोला" कहा जाता है। एक स्थान पर सैकड़ों गुठलियां होने के कारण अमोला का समुचित विकास नहीं हो पाता। इसलिए एक-डेढ़ फीट का होने पर अमोले को अन्यत्र रोप दिया जाता है। इसके साथ ही ये अमोला विशेष किस्म के आमों में कलम बांधने के भी काम आते हैं। शहरों के समीपवर्ती गांवों में तो नर्सरी वाले थोक के भाव अमोला खरीदकर ले जाते हैं। इस तरह लोगों को गुठलियों के भी दाम मिल जाते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है-आम के आम, गुठली के दाम।

शहरों में तो संपन्न माता-पिता बच्चों के लिए ढेर सारे कीमती खिलौने खरीद लाते हैं, लेकिन गांवों में जब विपन्न अभिभावकों के लिए परिवार का पेट पालना ही समस्या हो, तो बच्चों के लिए खिलौने खरीदने की बात सोचना भी संभव नहीं। मगर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। संपन्नता और विपन्नता की सीमाओं को बालमन क्या समझे। उसे तो मन बहलाने के लिए कुछ चाहिए। तभी तो शहर के बच्चे बंद कमरे की फर्श पर बैटरी की गाड़ियों को रिमोट से दौड़ाने में जो आनंद उठाते हैं, उससे कहीं अधिक आनंद गांव के बच्चे साइकिल के पुराने टायर को डंडे से मारकर भगाते हुए उसके पीछे दौड़कर उठाते हैं। गांवों के साधन विहीन बच्चे न जाने मनोरंजन के लिए ऐसे ही और कितने साधन ईजाद कर लेते हैं। इन्हीं में एक है आम की गुठलियों से बनने वाली सीटी।

बीज में वृक्ष के छुपे होने का दर्शन और आम की किस्मों को अगली पीढ़ियों के लिए महफूज रखने जैसे महान उद्देश्यों की बात तो बड़े-बुजुर्ग जानें, बच्चों को इनसे क्या काम। सो हम बच्चे अंकुर फूटती गुठलियों को निकाल लाते और उसका छिलका उतारकर गुठली के एक सिरे को ईंट या पत्थर पर घिसकर उसे सीटी की तरह बजाते। क्या खूब मीठी आवाज निकलती। हर बच्चा अपनी तरकीब से गुठली को घिसता और इससे निकलने वाली अलग-अलग आवाज समवेत रूप में अलग ही तरह का संगीत रचती। गुठलियों से बनी सीटी की वह मिठास आज भी दिल में रची-बसी है। अब जबकि आम का सीजन विदा लेने ही वाला है, बरबस ही बचपन में बजाई गुठलियों की सीटी की मिठास याद आ गई।  

विवाह की भविष्यवाणी

आम के पेड़ में बौर लगने के साथ ही हमारा दिल मानों आम की गाछी में ही अटका रहता था। जैसे ही टिकोला (अमिया) आकार लेता, हम बच्चे घर से नमक लेकर गाछी में पहुंच जाते। सितुआ (घोंघा की प्रजाति का एक जीव) में छेद कर उससे टिकोला को छीलते और उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता। फिर बाल मंडली उसमें नमक छिड़ककर चटखारे लेकर खाती। टिकोला को काटने पर उससे निकलने वाले बीज को हम "कोइली" कहते थे। वह बहुत चिकना होता था। उसे अंगूठे और तर्जनी में फंसाने के बाद किसी साथी का नाम का लेकर पूछते- इसकी शादी किस दिशा में होगी?  और फिर धीरे से दोनों अंगुलियों को धीरे से दबा देते। "कोइली" अंगुलियों से छिटककर जिस दिशा में जाती, हम समझते कि उस बच्चे की शादी उसी दिशा में होगी। ... तो इस तरह "कोइली" विवाह की भविष्यवाणी भी करती थी।

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