...दू गो जामुन गिरा दे
कैसे विपरीत हालात हैं। जून और आषाढ़ का जो महीना आम की मिठास से मह-मह करता रहता था, वह आज कोरोना महामारी की दहशत में बीत रहा है। सारी दुनिया खौफजदा है। बड़े-बड़े चिकित्सा विशेषज्ञ किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। लोग समझ नहीं पा रहे कि कब इस भय भरे माहौल से मुक्ति मिलेगी।
बचपन के दिनों को याद करता हूं तो यह मौसम हमारे लिए फुल मौज-मस्ती से भरा हुआ करता था। दिन भर दोस्तों-भाई-बहनों के साथ इस बगीचे से उस बगीचे तक डोलते रहना, खूब छककर तरह-तरह के अद्भुत-अनुपम स्वाद वाले आम खाना... गाछी में दीदी और उनकी सहेलियों के बनाए गए सुस्वादु व्यंजनों के साथ वनभोज का आनंद... क्या-क्या गिनाऊं।
तब स्कूलों का सत्र जनवरी से दिसंबर तक चला करता था। पांच महीने की पढ़ाई और स्कूल के अनुशासन की कैद के बाद जून का पूरा महीना गर्मी की छुट्टी के नाम हुआ करता था। शहर के बच्चों को जहां साल भर जून महीने का इंतजार रहता था कि कब गर्मी की छुट्टी हो और ननिहाल जाएं। वहीं, हम गांव के बच्चों के लिए यह प्रकृति मां की गोद में समय बिताने का सुअवसर होता था।
मई मध्य तक अमूमन आम के बगीचों में घर से एक मड़ैया लाकर प्रतिस्थापित कर दिया जाता। फिर बाग की रखवाली के लिए दिन में परिवार की बुजुर्ग महिला का बसेरा वहीं हुआ करता था। शाम होने पर बुजुर्ग महिला घर लौट आतीं और परिवार के कोई वरिष्ठ और जिम्मेदार पुरुष रात का खाना खाकर आम के बगीचे में ही सोते थे। यह क्रम आखिरी पेड़ से आम तोड़े जाने तक चला करता था।
हम बच्चे तेज धूप के बावजूद दोपहर में बगीचे में पहुंच जाते। वहां हमारी आंखें पेड़ पर सबसे पहले पकने वाले आमों को खोजने लगतीं। मनपसंद आम तोड़कर खाने के बाद बच्चों की टोली जामुन की तलाश में निकल जाती। उस जमाने में जामुन का कोई व्यावसायिक महत्व नहीं होता था। ऐसे में किसी दूसरे के बगीचे में लगे पेड़ से भी जामुन तोड़ने की मनाही नहीं थी। मगर जामुन के पेड़ काफी लंबे होते थे। हम बच्चों के लिए उस पर चढ़ना बड़ा मुश्किल होता था। हर साल जामुन के पेड़ से गिरने के कारण आस-पड़ोस के दो-चार लोगों के हाथ-पैर टूट जाया करते थे। लोगों में इस बात का भय रहता था कि जामुन के पेड़ पर भूत रहते हैं जो उस पर चढ़कर जामुन तोड़ने वालों को गिरा देते हैं।
ऐसे में आम के पेड़ पर चढ़कर फुनगी पर लगे पके आम को तोड़ लाने वाले हम बहादुर बच्चों की हिम्मत जामुन के पेड़ पर चढ़ने में जवाब दे जाती। ...और ऐसे में हम बच्चे पेड़ पर जामुन की मिठास का लुत्फ उठा रहे पक्षियों से एक स्वर में मनुहार करने लगते :
मैना के बच्चा सुमैनी गे
दू गो जामुन गिरा दे
कच्चा गिरैबे तऽ मारबऊ गे
दू गो पाकल गिरा दे।
...और फिर पक्षियों की मेहरबानी कहें या हवा के वेग का असर, थोड़ी देर में दो-चार जामुन गिर ही जाते और हम खुश हो जाते कि सुमैनी ने हमारी मनुहार सुन ली।
खिलाने का सुख
हमारे गांव में आम के बाग तब बहुत कम ही लोगों के लिए कमाई का जरिया थे, लेकिन आम की अच्छी फसल उन्हें आम से खास जरूर बना देती थी। बाग में जब किसी पेड़ से आम टूटता तो वहां से गुजरते हुए ऐसे बच्चों को जिनके खुद के बाग नहीं होते, बुलाकर दस-पांच आम दे देने से उनके अंदर दानवीर होने की भावना का संचार होता था। वहीं मेहमानों की आवभगत में भी ये आम अपनी खास भूमिका निभाते थे। पानी से भरी बाल्टी में रखे आम मनुहार के साथ एक-एक कर अतिथि को खिलाने में उन्हें जो अद्भुत आनंद आता था, उसे शब्दों में पिरोना संभव नहीं।
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