बचपन के दिनों की बात है। कई महिलाएं अपने पति या बेटे के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए बड़का बाबू (ताऊजी) के पास आती थीं। मैं जब पांचवीं-छठी में आया होऊंगा तो बाबू ने उनकी चिट्ठियां लिखने का जिम्मा मुझे सौंप दिया।
"सोसती सिरी लिखा, यहां सब कुशल है, आपकी कुशलता के लिए भगवान से मनाते हैं" से इन पत्रों की शुरुआत होती। हालांकि इन आठ-दस शब्दों में ही कुशलता की भावना दम तोड़ने लगती और पीड़ा का प्रवाह शुरू हो जाता। पिछले महीने ननकिरबा (नन्हा बेटा) बीमार हो गया था। महाजन से पैसा लेकर इलाज कराया। उसके लिए दूध भी उठौना लेना पड़ रहा है। भगवान की कृपा से अब वह ठीक है, लेकिन महाजन सुबह-शाम पैसे के लिए तगादा करने लगा है। खाद-बीज के लिए पैसे की दरकार, बूढ़ी मां की दवाई, जवान होती बेटी की शादी... परिवार का पेट भरने के लिए अनाज, गाय-बैल के चारे की चिंता... आदि इत्यादि...हर महिला की अपनी अनंत पीड़ा होती...कहां तक गिनाऊं। सारी जरूरतों का हिसाब लगाते हुए एक निश्चित रकम की उम्मीद भरी मांग के साथ पत्र का अंत होता।
पोस्टकार्ड की कीमत तो कम होती थी, लेकिन उसमें सारी बातें समेटना संभव नहीं होता, फिर उसमें अपने दिल की बात बेगानों की नजर में आने का भी खतरा रहता था। वहीं लिफाफे की कीमत अधिक होती और उसमें डालने के लिए अलग से कागज की भी दरकार होती। ऐसे में बीच का रास्ता अपनाते हुए अंतर्देशीय पत्र ही चिट्ठी लिखवाने के लिए सर्वोत्तम विकल्प हुआ करता था। कई बार इन पत्रों में पैसे के साथ बेटे या पति को बुलाने की मनुहार भी होती।
कुल मिलाकर ये चिट्ठियां शुगर कोटेड कुनैन की कड़वी गोलियों की तरह होती जिनकी शुरुआत और अंत ममता और प्रेम की मिठास भरे दो-चार शब्दों से होती, मगर मध्य में ये चिट्ठियां अथाह पीड़ा समेटे होती थीं।
एक बात और... उन महिलाओं को शुद्ध हिंदी या खड़ी बोली नहीं आती थी, सो वे बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव की स्थानीय बोली वज्जिका में अपनी बात कहतीं और मैं उसे हिंदी में लिखता जाता। लिखने के बाद उनकी तसल्ली के लिए हिंदी में लिखी चिट्ठी को वज्जिका में पढ़कर उन्हें सुनाता। इस तरह कच्ची उम्र में ही ग्रामीण जीवन की त्रासदी को महसूस करते हुए पत्र लिखने के साथ अनुवाद की कला भी अनायास ही सीख गया। उस जमाने में अकुशल मजदूरों के लिए नौकरी का मतलब कलकत्ता जाना ही हुआ करता था। इसलिए इन पत्रों की मंजिल अमूमन कलकत्ता ही होता। जब इन पत्रों के जवाब में मनीऑर्डर आ जाता और वे महिलाएं दुबारा पत्र लिखवाने आतीं तो उनके चेहरे की खुशी और आंखों में उतर आया कृतज्ञता का भाव देखते ही बनता था।
मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर चला गया। शुरुआत के महीनों में तो कुछ दिनों के अंतराल पर घर आ जाता और पैसे लेकर लौट जाता, लेकिन धीरे-धीरे यह अंतराल बढ़ता गया। ऐसे में क़िताबें खरीदने समेत अन्य आवश्यकताओं का जिक्र करते हुए पैसे के लिए बाबूजी को पत्र लिखता। हालांकि ये पत्र डाक के बजाय गांव जा रहे किसी व्यक्ति के हाथों ही भेजे जाते।
हां, कॉलेज के इन्हीं दिनों में कई मित्र अपनी गर्ल फ्रेंड या पत्नी को लिखे पत्र की झलक दिखाकर उपकृत करते, जिसमें एक शेर कॉमन होता :
कुशल ही कुशल है, कुशल चाहता हूं
दिल में लगन है, मिलन चाहता हूं।
कॉलेज की पढ़ाई के बाद आजीविका के सिलसिले में तीन-चार साल के लिए किशनगंज के प्रवास पर रहा तो उस दौरान मां-बाबूजी और दोस्तों को खूब पत्र लिखे। इस बीच छोटी बहन की शादी हो गई तो उसे भी पत्र लिखता रहा। पत्र लिखने के बाद शिद्दत से जवाब मिलने का इंतजार और पत्रोत्तर पाने के बाद मिले आनंद को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी आनंद को पाने की तड़प थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के बाद किशनगंज में रहते हुए पहली बार कर्फ्यू से सामना हुआ और कई दिनों के बाद कर्फ्यू में ढील की मुनादी होने पर लोग जहां अपनी-अपनी जरूरतों का सामान खरीदने के लिए निकले, वहीं मैं सबसे पहले भागकर मेन पोस्ट ऑफिस ही गया था कि कोई चिट्ठी तो नहीं आई है। इसके बाद हरियाणा और राजस्थान के मित्रों से संपर्क हुआ तो उनसे मिलने वाले पत्रों की शुरुआत "अत्र कुशलं तत्रास्तु" से हुआ करती थी। कुल मिलाकर पत्रों में सैकड़ों-हजारों शब्द लिखे हों, मगर उनकी मूल भावना महज अपनों की कुशलता की कामना ही होती है।
कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते आज पूरी मानवता पर ही संकट के बादल छाए हुए हैं। "आपदा को अवसर में बदलने" के महामंत्र का अर्थ कुछ विशेष सामर्थ्यवान "विभूतियों" ने अपने-अपने हिसाब से लगाते हुए स्वार्थपरता की सारी सीमाएं लांघ दी हैं। ऐसे में बाकी लोगों के सामने अंतहीन परेशानियां उत्पन्न हो गई हैं, जिनका जिक्र संभव नहीं है। अधिकांश लोग अवसाद में जीने को विवश हैं। आए दिन प्रतिभावान युवा-युवतियों के आत्महत्या करने की खबर मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। अब चिट्ठियों का जमाना तो रहा नहीं, सो कठिनाइयों के इस दौर में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि मोबाइल फोन, व्हाट्सएप के जरिए अपनों से हरसंभव संपर्क बनाए रखें। खुद की स्थिति बेहतर हो तो आगे बढ़कर मदद के लिए हाथ बढ़ाएं, अन्यथा परेशानी के क्षणों में केवल हालचाल पूछ लेने से भी बड़ी तसल्ली मिलती है। अन्यथा परेशानियों से अशांत होकर हमारा कोई अपना यदि "सुशांत" हो गया, तो बाद में चाहे हम कितने भी आंसू बहा लें, खुद को माफ नहीं कर पाएंगे।
No comments:
Post a Comment