आम बस नाम का ही आम है, वरना इसकी खासियतें तो अनगिनत हैं, अनमोल हैं। तभी तो इसे फलों के राजा का ताज मिला है। अपनी अल्पज्ञता के कारण मैं जहां तक समझ पाया हूं, यह इकलौता फल है जो पेड़ पर लगने के बाद से पककर स्वत: डाल से गिरने तक हर रूप में अपने लुत्फ से हमें आह्लादित करता है। बौर झड़ने के बाद पल्लवों के बीच जैसे ही टिकोला या अमिया स्वरूप लेता है, इसकी खटास सबसे पहले अपने उदर में नवजीवन का कोंपल संजोए ममतामयी मां की पसंद बनती है। फिर इसकी चटनी हर थाली की शोभा बढ़ाती है। टिकोले में जब गुठली पूरा आकार लेता है तो अचार के रूप में इसके स्वाद को आने वाले वर्षों के लिए सहेज कर रख लिया जाता है। आम का पना जहां जानलेवा लू से बचाता है, वहीं मैंगो शेक की तरावट के क्या कहने।...और जब आम अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो इसकी अमृत सरीखी मिठास को अभिव्यक्त करने में शब्द कम पड़ जाएं। सीजन के बाद भी इसकी मिठास का रसास्वादन करने के लिए अमौट (मैंगो केक) बनाकर रख लिया जाता है। यदि कहूं कि आम की मिठास को निकाल दिया जाए तो जीवन में काफी बड़ा खालीपन आ जाएगा, अतिशयोक्ति नहीं होगी।
गांवों में तो बगीचों में आम के जितने पेड़, उतनी ही प्रजातियां होती हैं। रंग-रूप से लेकर आकार-प्रकार और स्वाद में एक से बढ़कर एक। ... और इन्हीं खासियतों के आधार पर इनका नामकरण भी कर दिया जाता है। जैसे-केले के आकार का है तो केरवा, सिंदूर सा रंग है तो सेंदुरिया, अधिक सन (रेशे) हों तो सनहा, बेल (बिल्व) के आकार का हो तो बेलवा, गुच्छों में फलता हो तो बरबरिया, सीप के आकार का हो तो सीपिया, अत्यधिक मीठा हो तो पूरनी मिठूबा, पकने के बाद भी खट्टापन बना रहे तो खटूबा....। गाछी में आम के जितने गाछ, उतने नाम और अलग-अलग लोगों की गाछी में अलग-अलग गाछ के अलग-अलग नाम। इस तरह एक ही गांव में सैकड़ों प्रजातियां।
कुछ आम के नाम स्थान विशेष के नाम पर भी होते हैं। जैसे-बंबइया। इस आम का मायानगरी बंबई (तब मुंबई नहीं हुआ था) से क्या कनेक्शन है, इसका तो पता नहीं, लेकिन नाम की तरह ही इसके स्वाद में भी जादू होता है। यह कच्चे में भी मीठा लगता है। इसलिए बच्चों की पहुंच से इसे बचाने के लिए विशेष जतन करने पड़ते हैं। मीडियम साइज का यह बंबइया आम अन्य आमों की तुलना में सबसे पहले पकता है और इसका स्वाद भी निराला होता है।
इसी तरह एक आम है मालदह। रंग-रूप-आकार-सुगंध और स्वाद में इसे आमों का सरदार कह सकते हैं। मुझे यह आम सर्वाधिक पसंद है, इसलिए संभव है मैं इसकी तरफदारी कर रहा होऊं, लेकिन इसके दीवाने मेरी तरह और भी बहुत सारे होंगे, इसमें कोई शक नहीं। इसके झक्क सफेद रंग की वजह से इसे सफेद मालदह भी कहते हैं। बिना रेशे के भरपूर गूदेदार इस आम की गुठली पहुत ही पतली होती है। ...और मिठास के तो कहने ही क्या। यह हमारे पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के मालदा जिले से जुड़ा है और बिहार तक पहुंचते-पहुंचते इसका नाम मालदह हो गया। बंगाल और बिहार के अलावा भी इस आम का जादू बरकरार है, मगर अफसोस इन दोनों राज्यों की सीमा पार करने के बाद इसका नाम लंगड़ा हो जाता है। अब आम के पैर तो होने से रहे कि वह लंगड़ा हो, मगर लोगों का क्या, अंधे का नाम नयनसुख रखने वाले यदि भले-चंगे सर्वगुण संपन्न मालदह आम का नामकरण लंगड़ा कर दें तो कौन क्या करे।
मालदह आम की खासियत के चलते एक छोटे से जिले का नाम हो जाए, यह बात बंगाल की राजधानी को कैसे रास आती, सो आम की एक और प्रजाति है कलकतिया मालदह। हालांकि रंग-रूप-आकार-स्वाद और मिठास सभी में सफेद मालदह के सामने इसकी स्थिति कहां राजा भोज, कहां गंगुआ तेली जैसी ही है।
पटना-किशनगंज रेल रूट पर दालकोला के आगे सूर्यकमल स्टेशन के पास सुरजापुर गांव है। 1991 में जब किशनगंज गया तो इस सुरजापुर गांव के सुरजापुरी आम का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा था। आस-पड़ोस के जिलों पूर्णिया, कटिहार, सिलीगुड़ी और इससे आगे तक के लोग इस आम के मुरीद हैं। मैं भी जब तक किशनगंज रहा, सुरजापुरी आम का जमकर लुत्फ उठाया।
स्थान के नाम से प्रसिद्धि पाने वाले आम की बात करूं तो मलिहाबादी दशहरी का नाम बरबस ही सामने आ जाता है। लखनऊ के मलिहाबाद कस्बे की पहचान ही दशहरी आम से है। देश की कौन कहे, विदेशों तक में लोगों को भी शिद्दत से इसका इंतजार रहता है। जून मध्य से लेकर जुलाई मध्य तक लखनऊ की सड़कों के किनारे ठेलों पर जिधर नजर जाती है, दशहरी आम ही नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे मलिहाबाद के आम के बागों ने ठेले पर ठिकाना जमा लिया हो। हालांकि अफसोस की बात यह है कि कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से उपजे संकट के इस दौर में हर शख्स बेजार है। बाजार की रौनक ही खो गई है। ऐसे में आम के ठेले पिछले वर्षों की तुलना में इस बाार कम नजर आते हैं और इसके साथ ही मलिहाबाद के आम बागवानों के चेहरों पर भी मायूसी है। आशा है, अगले साल से फिर सब सामान्य रहेगा।
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