Thursday, February 25, 2010

'करप्ट' हो गई खेती ?

भारतीय जनजीवन में अंग्रेजी और भ्रष्टाचार गड्डमड्ड हो गए हैं। अंग्रेजी के बिना कई स्थानों पर काम नहीं चलता तो भ्रष्टाचार के बिना हम काम चलाना चाहते ही नहीं। कई मामलों में ऐसा भी देखने में आया है कि महज सामाजिक रुतबे के लिए लोग अंग्रेजी अखबार मंगवाते हैं और ड्राइंग रूम में टेबिल पर अंग्रेजी की विशिष्ट पत्रिकाएं सजाकर रखते हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि पिता खुद ही अपनी संतान को इसके लिए प्रेरित करता है।
महज थोड़ी सी सुविधा या समय बचाने के लिए लोग भ्रष्टाचार को जान-बूझकर बढ़ावा देते हैं। मेरा तो मानना है कि हर आदमी यदि अपनी जगह पर ईमान पर चलना चाहे और भ्रष्टाचार को बढ़ावा न देने की ठान ले, तो इस संक्रामक बीमारी को मिटाने में देर नहीं लगेगी अन्यथा यह घुन की तरह पूरी व्यवस्था को ही अंदर ही अंदर चट कर जाएगी।
खैर, अब मैं उस मुद्दे पर आता हूं, जिसने मुझे इन पंक्तियों को लिखने के लिए प्रेरित किया। पिछले दिनों बिहार प्रवास के दौरान एक मित्र से मिलने उनके गांव गया। मित्र घर पर नहीं थे, सो उनके पिताजी से वार्तालाप का दौर शुरू हो गया। बिहार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चर्चा के बाद खेती-किसानी का प्रसंग भी सामने आया। मैंने इस वर्ष धान की फसल के बारे में पूछा तो बड़ी ही सहजता से उन्होंने कहा कि मेरे बेटे तो करप्ट खेती करते हैं, धान-गेहूं को कम ही तवज्जो देते हैं। उसमें लाभ कम होता है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि खेती कैसे करप्ट हो गई और फिर यह फायदे का सौदा कैसे हो गई। उनकी नजर में खुद को नासमझ साबित करना मुझे भी नागवार गुजरा, सो मैं बातचीत को यूं ही खींचने लगा। मसलन, इस समय उनकी खेतों में कौन सी फसलें उगी हुई हैं आदि-इत्यादि। उन्होंने टमाटर, गोभी, मिर्च जैसी सब्जियों के नाम गिनाए तब मेरी समझ में आया कि वे कैश क्रॉप की बात कर रहे थे। 9वीं-10 वीं में अर्थशास्त्र भी एक विषय हुआ करता था तो खाद्य फसल और व्यावसायिक फसलों के बारे में पढ़ा था। व्यावसायिक फसलों को ही वे कैश क्रॉप की बजाय करप्ट खेती कह रहे थे। वाकई खाद्य फसलों की तुलना में व्यावसायिक फसलें अधिक लाभप्रद होती हैं, यदि सब कुछ उसके अनुकूल हो।
जानकर संतोष हुआ कि कीटनाशकों और उर्वरकों के प्रयोग से फसलें भले ही हानिकारक हो गई हों, लेकिन यह किसी भी रूप में 'करप्ट' होने से बची हुई है। हां, सब्जियों का आकार समय से पहले बढ़ाने तथा दुधारू पशुओं में दूध बढ़ाने के लिए कुछ किसान अवश्य ही घातक ऑक्सिटोसिन का प्रयोग करते हैं, लेकिन यह अपवादस्वरूप ही हैं। सरकारों को यह व्यवस्था करनी चाहिए कि किसानों को उनकी लागत और मेहनत के अनुपात में उनकी उपज का उचित मूल्य मिले तो यह चलन भी रुक सकता है।

No comments: