Thursday, February 25, 2010

रेल बजट में राजनीति हावी

रेलवे स्टेशनों पर रेलवे का ध्येय वाक्य-संरक्षा, सुरक्षा, समय पालन-लिखा रहता है, लेकिन रेल मंत्री ममता बनर्जी के बजट में इस ध्येय वाक्य पर अमल करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखी या कहें कि इस पर ध्यान देना भी उचित नहीं समझा गया। हालांकि ममता ने अपने बजट भाषण में रेलवे के सामाजिक उत्तरदायित्व का जिक्र अवश्य किया, लेकिन उस पर भी राजनीतिक उत्तरदायित्व बाजी मार गया।
पूर्ववर्ती बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार का बेड़ा गर्क करने के बाद सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए यात्री किराये में वृद्धि नहीं करने की परिपाटी शुरू की थी और अब शायद पश्चिम बंगाल और बिहार में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ममता बनर्जी भी किराया बढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। इसी कड़ी में खाद्यान्नों और किरासन तेल की भाड़ा दरों में 100 रुपए प्रति माल डिब्बा कटौती किए जाने का प्रस्ताव भी आमजन के हित में कम, तृणमूल कांग्रेस व यूपीए के पक्ष में ही अधिक दिखता है।
जहां तक मैं समझता हूं, रेलवे के ध्येय वाक्य का पालन रेल मंत्री की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी। कोई भी आदमी जब ट्रेन से सफर करता है तो उसका पहला उद्देश्य तय समय में सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंचना होता है, भले ही उसे 500 रुपए के स्थान पर 502 या 503 रुपए खर्च करने पड़ें, लेकिन लगता है कि रेलवे मंत्रालय को इससे कुछ भी लेना नहीं है। तथाकथित सुपरफास्ट ट्रेनों का भी 8-10 घंटे लेट होना आम बात हो गई है। रेलवे मंत्रालय को इन राजनेताओं ने अपनी लोकप्रियता कमाने का जरिया बना लिया है। तभी तो लोकसभा चुनाव के बाद रेल मंत्रालय को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है।
कुछ बातें इस बजट में अच्छी भी हैं, जिनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। मसलन, एक निश्चित समयावधि में बिना चौकीदार वाले रेलवे क्रॉसिंग पर चौकीदारों की नियुक्ति करना, कैंसर रोगियों को नि:शुल्क यात्रा की सुविधा मुहैया करवाना, बड़े रेलवे स्टेशनों पर अंडरपास व सीमित ऊंचाई वाले सब-वे का निर्माण, सरप्लस रेल भूमि पर अस्पताल और स्कूल-कॉलेज खोलना, लाइसेंसधारी कुलियों, वेंडरों व हॉकरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना का विकास जैसे कदम अवश्य ही सराहनीय हैं।

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